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जैन-विभूतियाँ 9. मुनिश्री ज्ञान सुन्दर (1880- )
जन्म : सिवाणा, 1880 पिताश्री : नवलमलजी बैद मूंथा माताश्री : रूपा देवी दीक्षा : झामूणियाँ, 1906, पुन:
दीक्षा ओसिया, 1915 दिवंगति :
प्रकृति में ऐसे भी कुसुम भरे पड़े हैं जिनके सौन्दर्य और सुवास का अनुभव कोई नहीं कर पाता। ऐसे ही इस रत्नगर्भा वसुन्धरा की कोख से भी ऐसी विरल विभूतियाँ जन्म लेती हैं जो अपने आलोक से अंधकार में छुपे विगत को आलोकित कर जाती हैं।
जैन आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा विरात 70 वर्षे प्रतिबोधित एवं संस्थापित महाजन कुल (कालांतर में 'ओसवाल'' जाति) के श्रेष्ठि गोत्र के जैनियों की विक्रम की 12वीं शताब्दी में मारवाड़ के सिवाणा नगर में घनी आबादी थी। श्रेष्ठि गोत्रीय श्री त्रिभुवनसिंह गढ़ सिवाणा के मंत्री पद पर नियुक्त थे। इनके सुपुत्र मूंथा लालसिंह का विवाह चित्तौड़ हुआ था। लालसिंहजी चित्तौड़ गये हुए थे। वहाँ के महारावल की रानी चक्षु पीड़ा से पीड़ित थी। लालसिंह जी ने अपने उपचार से उन्हें स्वस्थ कर दिया। महारावल ने उन्हें 'वैद्यराज'' की उपाधि से सम्मानित किया। तब से उनका कुल 'वैद्य-मेहता' कहलाने लगा। इस कुल के वंशज नवलमलजी वीसलपुर ग्राम में निवास करते थे। उनकी भार्या रूपादेवी की कुक्षि से सन् 1880 में विजयादशमी के दिन एक बालक ने जन्म लिया। बालक बड़ा हुआ। उसे सत्संग से बड़ा प्रेम था। स्वाध्याय में भी रुचि थी। 17 वर्ष की आयु में उनका विवाह भानीरामजी बाघरेचा की सुपुत्री राजकुमारी से हुआ। चन्द वर्षों बाद ही पिता नवलमलजी का