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जैन-विभूतियाँ उन्होंने "जैन मित्र'' पत्रिका का सम्पादन किया। अपने पाठक वर्ग का विपुल धार्मिक साहित्य से परिचय कराया। इसके अलावा "जैन गजट, वीर, सनातन जैन आदि पत्रिकाओं का समय-समय पर संचालन/सम्पादन किया। उनकी प्रेरणा पाकर अनेक लेखक उत्साहित हुए। उनके रचित एवं सम्पादित 77 ग्रंथों में 26 अध्यात्म विषयक, 18 जैनधर्म एवं दर्शन, 7 नीति विषयक, 6 इतिहास विषयक 5, जीवन चरित्र एवं अन्य तारण स्वामी के साहित्य विषयक है। इन ग्रंथों में उनकी विद्वत्ता, साधना, सिद्धांत निष्ठा व भाषा ज्ञान परिलक्षित होता है। प्रवचन सार, समय सार, नियमसार, परमात्म प्रकाश, समाधि शतक, तत्त्वभावना, तत्त्वसार, स्वयंभूस्तोत्र आदि अनेक महान ग्रंथों का प्रकाशन उन्होंने किया। श्रीमद् राजचन्द्र के महान भक्त श्री लघुराज स्वामी के सान्निध्य में रहकर उन्होंने 'सहज सुख साधन' ग्रंथ की रचना की जो भक्तों में बहुत लोकप्रिय हुआ। इसका गुजराती अनुवाद भी प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने शिक्षा प्रसार एवं धर्म प्रचार में अपना समग्र जीवन लगा दिया। स्याद्वाद विद्यालय, बनारस, श्रीऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम, हस्तिनापुर; जैन श्राविकाश्रम, मुंबई; जैन बालाश्रम, आरा; जैन व्यापारिक विद्यालय, दिल्ली आदि संस्थान स्थापित करने का श्रेय उन्हीं को है। ये संस्थान निरन्तर उनकी सेवाओं से उपकृत होते रहे। साथ ही उन्होंने अनेक जैन बोर्डिंग हाउस खोले। समाज ने उनकी महती सेवाओं का सम्मान कर, बनारस में प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. हर्मन जेकोबी की अध्यक्षता में हुई विशाल सभा में उन्हें 'जैन धर्मभूषण' के विरुद से विभूषित किया। उनके अनेक सुधारवादी विचारों से परम्परावादी लोगों का खफा होना उचित ही था पर अन्तत: ब्रह्मचारी जी की निस्पृहता से वे भी शांत हो गए। __अत्यधिक श्रम करने से उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया। चिकित्सा भी हुई पर शरीर-कम्पन का रोग उनके अंगों को ग्रसता चला गया। वे लखनऊ अजिताश्रम में सेवाशुश्रुषा के लिए लाए गये। सन् 1942 में एक रोज वे गिर पड़े व हिपबोन का फ्रेक्चर हो गया। स्थिति बिगड़ती गई। 10 फरवरी, 1942 की प्रात: उन्होंने शांति पूर्वक देहत्याग