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जैन-विभूतियाँ
31 ''हे जैन पंडितों! अब देश धर्म का वास्तविक आधार तुम पर ही है, इसकी रक्षा करो, उद्यम करो, सोये हुए जन-मानस को जगाओ, तन-मन-धन से परोपकार एवं शुद्ध आचार अपनाओ। तभी आपके लोकपरलोक सुधरेंगे।"
शीतल प्रसाद जी का विवाह कलकत्ता निवासी श्री छेदीलालजी की सुपुत्री से हुआ। बहू बहुत संस्कारी, पति परायणा एवं सेवाभावी थी पर आयुष्य नहीं लाई थी। वे सन् 1904 की प्लेग की बिमारी की भेंट चढ़ गई। पत्नि वियोग के साथ माह भर में ही माँ और कनिष्ठ भ्राता का वियोग ब्रह्माचारी जी को सहना पड़ा। मात्र पच्चीस वर्ष के युवक के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। उधर अनेक स्वरूपवान कन्याओं के माता-पिता की ओर से विवाह के प्रस्ताव आमे लगे। परन्तु ब्रह्माचारी के मन को न धन डिगा पाया न काम। सन् 1905 में शीतलप्रसाद ने सरकारी नौकरी छोड़ दी एवं शास्त्र वाचन और समाज सेवा को समर्पित हो गए।
दिगम्बर जैन महासभा के सन् 1905 में मुंबई में हुए अधिवेशन में प्रसिद्ध दानवीर सेठ माणकचंद जे.पी. की नजर शीतलप्रसाद जी पर पड़ी। वे उनके आदर्शों, संकल्पों, उत्साह, सादगी एवं कार्यकुशलता से बहुत प्रभावित हुए। हीरे की परख जौहरी ही कर सकते हैं। उन्होंने इस युवक रत्न को अपने पास रख लिया। सतत चार वर्षों तक सेठजी के साथ रहकर उन्होंने विभिन्न संस्थाओं की रचनात्मक प्रवृत्तियों का संचालन किया। वे जल्दी ही अपनी मिलनसारिता से समाज में लोकप्रिय हो गए। सन् 1911 में सोलापुर में एलक श्री पन्नालालजी के सान्निध्य में शीतलप्रसाद ने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया एवं शुद्ध खादी के गेरुऐं रंग की धोती एवं चद्दर धारण की। उनकी आहारचर्या में तदनुरूप परिवर्तन हुआ एवं जीवन संयम-आराधना में प्रवज्यित हो गया।
उन्होंने समस्त भारत के जैन तीर्थों की यात्रा की। बौद्ध दर्शन के अभ्यास हेतु श्रीलंका और बर्मा गये। उदारता, सहिष्णुता एवं विश्व कल्याण की भावना से विभूषित सन्यासी सभी के आदर का पात्र बन गया। उनके ये अनुभव प्रकाशित भी हुए। सन् 1909 से लगातार 20 वर्षों तक