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________________ जैन- विभूतियाँ वर्षीय युवा संत जवहारलालजी महाराज थे। सन् 1905 का उदयपुर चातुर्मास बहुत प्रभावशाली रहा। यहीं गणेशीलालजी महाराज प्रवर्जित हुए। सन् 1907 का चातुर्मास रतलाम किया, वहाँ से आप चाँदला पधारे। इस चातुर्मास में हाथी द्वारा विवेक - विनय की, सर्प द्वारा शांतिभाव रखने की एवं पत्थर मारने वालों को महाराज द्वारा क्षमा करने की अनेक - चमत्कारी घटनाएँ हुई। 28 जाम गाँव के चातुर्मास में आपको 'गणि' पद से विभूषित किया गया। आचार्य लालजी महाराज ने सन् 1918 में सीलाम चातुर्मास में जवाहरलालजी को 'युवाचार्य' पद दिया। सन् 1919 में उनके स्वर्गारोहण के पश्चात् भीनासर में जवाहरलालजी 'आचार्य' पदे से विभूषित हुए । आपके मार्गदर्शन से संघ एवं समाज में सुधारक वृत्तियों का चलन हुआ। निरक्षरता एवं अंधश्रद्धा मिटाने के लिए आपने शिक्षण को अपना मिशन ही बना लिया। आपकी प्रेरणा से अनेक शिक्षण संस्थाओं का संस्थापन हुआ । " साधुमार्गी जैन हित कारिणी संस्था' के संस्थापन से अनेक समाज हितकारी कार्यक्रमों का संचालन सम्भव हुआ । यह संस्था साधुओं के शिक्षण, आचार संहिता एवं विहार प्रबंध में समुचित योगदान करती है। सन् 1923 के घाटकोपर (मुंबई) चातुर्मास में सामूहिक प्रवचनों के आयोजन जैन व अजैन धर्मप्रेमियों के लिए अत्यंत प्रेरणास्पद साबित हुए। आगामी चतुर्मास सौराष्ट्र एवं गुजरात में हुए जहाँ धर्मप्रेमियों का सद्भाव एवं भक्ति प्रशंसनीय थी । आचार्यश्री के स्वास्थ्य पर इन लम्बे विहारों का असर होने लगा था। शारीरिक अशक्ति एवं दर्द के कारण विहार सीमित हो गये। सन् 1942 के भीनासर चातुर्मास में आचार्य जी का अर्धांग पक्षाघात से पीड़ित हो गया । दैहिक वेदना को समतापूर्वक सहते हुए आचार्यश्री ने भीनासर में देहत्याग दिया । आचार्य जवाहरलालजी महाराज ने रूढ़िगत क्रियाओं को कभी महत्त्व नहीं दिया, वे ज्ञान की आराधना को ही समर्पित रहे । उनका प्रगतिशील एवं सुधारवादी दृष्टिकोण राष्ट्रीयता के रंग से रंगा था । राष्ट्र के प्रतिभा सम्पन्न नेता उनके दर्शन, सत्संग एवं परामर्श से लाभान्वित होते ।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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