________________
26
जैन-विभूतियाँ ___7. आचार्य जवाहरलालजी (1875-1942)
जन्म : चांदला (मालवा),1875 पिताश्री : जीवराज ओसवाल माताश्री . : नाथीबाई दीक्षा : लिंबड़ी, 1891 आचार्य पद : 1919, भीनासर
दिवंगति : भीनासर, 1942 बहुधा 'जैनाचार्य' से एक सम्प्रदाय की परम्पराओं से आबद्ध रूढ़िगत साधनाओं के आलम्बन से शास्त्रबद्ध सिद्धांतों के परम्परागत अर्थ करने वाले विद्वान मुनि का बोध होता है। इस मान्यता को धराशायी करने वाले "आत्मवत् सर्वभूतेषु'' के सिद्धांत को हृदयंगम कर उदारवादी दृष्टि से अर्वाचीन संदर्भो में धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या करने वाले प्रबुद्ध संतों में आचार्य श्री जवाहरलालजी अग्रणी थे।
महाकवि कालिदास और भवभूति जैसे सरस्वती-उपासकों के मालवा प्रदेश के चांदला ग्राम में ओसवाल जाति के वणिक श्रेष्ठि जीवराज के घर उनकी सहधर्मिणी नाथी बाई की कुक्षि से सन् 1875 में एक बालक ने जन्म लिया। संस्कारी माता-पिता की इस तेजस्वी संतान का नामकरण 'जवाहर' हुआ। कहते हैं सुवर्ण को तपाने से उसमें ओर निखार आता है। महापुरुषों के जीवन में भी विपत्तियाँ और कष्ट परिमार्जन हेतु ही आते हैं। मात्र दो वर्ष की वय में बालक की माताजी चल बसी और पाँच वर्ष की वय में पिताजी काल-कवलित हो गए। अत: बालक के पालन-पोषण की जिम्मेवारी उनके मामा श्री मूलचन्द पर पड़ी। उनका ग्राम में ही कपड़े का व्यवसाय था। ग्राम के आजू-बाजू आदिवासी भीलों की बस्तियाँ थीं। ईसाई मिशनरियों का फैलाव था। उन्हीं की एक पाठशाला में जवाहर का प्रारम्भिक शिक्षण हुआ। परन्तु जल्द ही शाला छोड़ वे व्यवसाय में मामा का हाथ बटाने लगे। गुजराती, हिन्दी एवं