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जैन- विभूतियाँ
फिरोजाबाद में उनकी हीरक जयंती बड़े धूमधाम से मनाई गई। वर्णीजी ने अपनी उत्तरावस्था लक्ष कर पवित्र वातावरण में आत्म-साधना हेतु सम्मेद शिखर की ओर प्रयाण किया। वे गया चतुर्मास कर ईसरी (पारसनाथ) पधारे। अपने अंतिम समय तक वे वहीं रहे। उनके स्थिरवास में ईसरी का खूब विकास हुआ। वहाँ धर्मशाला, पार्श्वनाथ उदासीनाश्रम, महिलाश्रम, जिन मंदिर, विशाल प्रवचन मंडप का निर्माण हुआ । यह भी एक तीर्थ की तरह धर्मप्रेमियों का दर्शन स्थल बन गया । सन् 1961 में 87 वर्ष की उम्र में वर्णीजी ने संलेखना करने का संकल्प किया । शनै:शनै: आहार त्याग दिया, फिर जल एवं वस्त्र का परित्याग किया। दैहिक विपरीतता के बावजूद वर्णीजी की आंतरिक जागृति खूब थी । अन्ततः नश्वरदेह का परित्याग करके स्वर्गवासी हुए ।
वर्णीजी के देहावसान से एक आत्मज्योति भारतभूमि से विलुप्त हो
गई ।
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