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जैन-विभूतियाँ 103. सेठ राजमल ललवानी (1894-
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जन्म : आऊ (फलोदी), 1894 पिताश्री : रामलाल ललवानी (दत्तक :
लक्खीचन्द ललवानी),
सन् 1906 माताश्री : भागीरथी बाई दिवंगति :
व्यक्ति के चरित्र का विकास परिस्थितियों के घात-प्रतिघात, विपत्ति और सम्पत्ति के परिवर्तनशील चक्र के संदर्भ में ही होता है। एक अनूठा सत्य यह है कि इन सभी अनुकूल-प्रतिकूल स्थितियों में भी मनुष्य के नैसर्गिक गुण उजागर हो उठते हैं। यह मनुष्य का साहस और संकल्प ही है जो उसे उन्नति पथ पर अग्रसर करता है। सेठ राजमलजी ललवानी के जीवन प्रसंग इस तथ्य के मूर्त गवाह हैं।
आपका जन्म राजस्थान के फलौदी जिला अन्तर्गत आऊ ग्राम में श्रीरामलालजी ललवानी की सहधर्मिणी की कुक्षि से संवत 1951 (सन 1894) में हुआ। खेती बाड़ी का काम था। जब वे 8 वर्ष के थे तभी पिता जीविकोपार्जन के लिए परिवार सहित खानदेश के मुड़ी ग्राम आ गए। वहाँ मराठी भाषा में राजमल दूसरी कक्षा तक पढ़े। तभी एक आकस्मिक घटना के कारण उन्हें घर छोड़ना पड़ा। उनका एक सहपाठी लड़कों से पैसे ठगने के लिए देवता को शरीर में लाने का ढ़ोंग किया करता था। राजमलजी उसके चक्कर में फँस गए। घर से पैसे लाकर उसे देने लगे। देवयोग से यह बात बड़े भाई को मालूम हो गई। उन्होंने खूब मारा। राजमल वहाँ से भागे और 15 कोस पैदल चलकर वरुल भटाना ग्राम पहुँचे। वहाँ नीमाजी पटेल के आश्रय में दूकान कर ली। शनै:-शनै: कमाई होने लगी। इस वक्त उनकी उम्र 11 वर्ष थी। पिता को जब मालूम पड़ा तो वे भी भटाना आकर उसी धंधे में लग गये।