________________
जैन-विभूतियाँ
19 थे। वे वहीं आकर रहने लगे। रविसागरजी दिवंगत हुए तो बेचरदास के सर से जैसे सुरक्षा कवच ही खो गया। तभी सं. 1956 का भयंकर दुष्काल शुरु हुआ। छपनिया काल की निर्मल चपेट से बेचरदास के माता पिता बच न सके। माता-पिता की उत्तर क्रिया सम्पन्न कर बेचरदास का वैरागी मन शाश्वत सत्य की खोज के लिए तड़प उठा। संवत् 1957 में पालनपुर जाकर उन्होंने रविसागर जी के शिष्य सुखसागरजी महाराज से जैन दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा उपरान्त उनका नामकरण हुआ मुनि बुद्धिसागर।
बुद्धिसागर जी अत्यंत तेजस्वी एवं विद्याव्यसनी तो थे ही, उन्होंने शास्त्राभ्यास किया। ग्रहण शक्ति तो थी ही, उनकी तर्कशक्ति भी खिल उठी। उनकी रचना शक्ति का प्रथम प्रसाद 'जैन धर्म अने खिस्ती धर्म नो मुकाबिलो' (गुजराती) ग्रंथ रूप में सूरत में सामने आया जिसका बहुत दूरगामी प्रभाव लोगों पर पड़ा। यहीं उनकी मंत्र शक्ति के चमत्कारक प्रभावों की अनेक घटनाएँ घटी। लेखन के साथ उनकी वाक् शक्ति भी खिलने लगी। उनके व्याख्यानों में जैन अजैन सभी श्रोता आने लगे। सं. 1968 में अहमदाबाद में सुखसागरजी महाराज का देहांत हुआ। सं. 1970 में पोथापुर में धर्मसंघ ने उन्हें 'आचार्य' पद से विभूषित किया। आचार्य बुद्धिसागर सूरि 51 वर्ष की अल्प वय में ही बीजापुर में सं. 1981 में दिवंगत हुए। अपने 24 वर्षीय दीक्षा पर्याय में उन्होंने विपुल साहित्य सर्जित किया। उनके जीवनकाल में ही 108 ग्रंथ प्रकाशित हो चुके थे, जिनमें मुख्य थे-कर्मयोग, आनन्दघनजी ना पदो, परमात्म ज्योति, ध्यानविचार, शिष्योपनिषद्, श्रीमद् देवचन्द्र आदि। यह समग्र साहित्य बीस हजार पृष्ठों में समाहित है।
आचार्य बुद्धिसागर सूरि ने दृढ़ योग प्राणायाम, ध्यान, समाधि की गहन साधना की थी। उन्हें योग सिद्धि प्राप्त थी। कहते हैं समाधि में उनका शरीर जमीन से ऊपर उठ जाता था। बड़ोदा के सर मनुभाई दीवान एवं डॉ. सुमंत महेता उनके ऐसे कतिपय प्रयोगों के साक्षी थे। अनेक सन्यासी, जैनेतर विद्वान, फकीर, पादरी उनके दर्शन एवं परामर्श