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________________ 376 जैन-विभूतियाँ वही भावना पू. काकासाहेब कालेलकर की प्रेरणा से विश्व-समन्वय के रूप में जीवन में परिणत हुई। सन् 1935 से करीब दस साल तक वे लेखन एवं साहित्यिक प्रवृत्ति से जुड़े रहे। इस बीच उन्होंने कई किताबें लिखी, कुछेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और बहुत से धार्मिक लेखों/पुस्तकों का अनुवाद भी किया। वे करीब छ: महीने तक जैसलमेर भी रहे। वहाँ उन्होंने जैन-भण्डार में स्थित ताड़-पत्र पर लिखित पांडुलिपियों का गहन अध्ययन किया। तभी बिहार में भयंकर भूकंप हुआ। उनकी समाज-सेवी आत्मा को भूकंप पीड़ितों की सहायता करने का मौका मिला। उनकी सेवा भावना की कद्र करके बिहार में उन्हें 'समाज-सेवी' के विरुद से विभूषित किया गया। 1934-35 में अजमेर साधु-सम्मेलन हुआ जिसमें उन्होंने अपनी तन-मन-धन से सहायता की। इसी सम्मेलन के लिए सौराष्ट्र में परिभ्रमण किया। गिरनारजी की यात्रा के दौरान जुनागढ़ के दीक्षोत्सव में 'शिक्षा और दीक्षा' – विषय पर व्याख्यान दिया। 1934 में दया कुमारी के साथ खादीपरिधानों में आपका लग्न सम्पन्न हुआ। ईश्वर ने मानो उन्हीं की विचार-धारा को प्रोत्साहन देने वाली पत्नी और धार्मिक विचारों-शास्त्रों एवं जैन-धर्म का दृढ़ता से पालन करने वाली सहचारिणी को खास उन्हीं के लिए इस पृथ्वी पर मेल कराया हो। सौराष्ट्र की यात्रा समय दामनगर में आध्यात्मिक संत कानजी-स्वामी के प्रथम दर्शन से ही वे बहुत प्रभावित हुए। उनके प्रभाव से ही श्री शांतिलाल शेठ के विचारों में परिवर्तन हुआ और वे धीरे-धीरे पू. गुरुदेव के प्रवचनों और शास्त्रों में रुचि लेने लगे। अब उनके जीवन की क्रियाएँ आध्यात्मिकता की ओर ढलने लगी। श्रीमद् राजचन्द्रजी की विचारधारा से भी वे विशेष प्रभावित हुए। अब वे स्वाध्याय और चिन्तन पर ज्यादा समय देने लगे। नियमित स्वाध्याय और मनन अब उनके जीवन का ध्येय बन गया। अपने जीवन के उत्तरार्ध में अध्यात्म-अभ्यास के लिए सोनगढ़, जयपुर एवं देवलाली में ज्यादा दिन रहने लगे।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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