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जैन-विभूतियाँ लाख रुपये का अवदान दिया। जब सम्मेद शिखर तीर्थ पर संकट के बादल मंडराए और अंग्रेज सरकार ने वहाँ विदेशी शासकों के लिए कोठियाँ निर्माण करने का हुक्म निकाला तब सेठजी ने जैन समाज का नेतृत्व कर पुरजोर विरोध किया एवं सम्मोद शिखर को विदेशी हाथों में जाने से बचाया।
सन् 1902 में उन्होंने इन्दौर के पास ही श्री पार्श्वनाथ के भव्य जिनालय का निर्माण करवाया। इसमें रंग-बिरंगे काँच की पच्ची कारी सृजन के लिए ईरान से कारीगर बुलाए थे। इन्दौर में जब प्लेग की महामारी ने पाँव पसारे तो सेठ साहब ने अहसाय जैन भाइयों की सहायता के लिए हर सम्भव प्रयास किये । सन् 1913 में श्री दिगम्बर जैन महसभा के पालीताणा अधिवेशन में सेठ साहब अध्यक्ष मनोनीत हुए। तीर्थ की सुरक्षा के लिए उन्होंने चार लाख का अवदान दिया। सन् 1917 में दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल हॉस्पिटल के लिए उन्होंने चार लाख रुपए अवदान दिये। देश के कौने-कौने में ऐसे अवदानों की झड़ी लग गई थी।
जैन-जागरण के अग्रदूत के लेखक श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीम के अनुसार- "यदि कतिपय पण्डित आपको रूढ़िवादी विचारों में न फँसाये रहते तो जो स्थान आज बौद्ध धर्म में अशोक को, जैनधर्म में सम्प्रति और खारवेल को प्राप्त है, वहीं ऐतिहासिक स्थान सर सेठ को मिला होता।"
प्रसिद्ध साहित्यकार श्री कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने सर सेठ के व्यक्तित्व की विशिष्टता उकेरते हुए कहा था, ''सर सेठ की कर्मनीति चाणक्य वाली है, सफलता और विजय अवश्य मिले, चाहे जैसे भी मिले। जरूरत हो तो तीरछी बाँकी व्यूह रचना भी कर सकते हैं। इसमें कुटिल होकर भी वे जीवन में सरल हैं। अपनी युद्ध नीति में वे विरोधी को फुसलाना भी जानते हैं-भ्रम में डालना भी, झपट्टा मारना भी। वे विरोधियों को परास्त करने में ही कुशल नहीं, अपनों को आश्वस्त करने में भी प्रवीण हैं।''
दिगम्बर जैन महासभा ने 1952 में उन्हें अभिनन्दन-ग्रंथ भेंट कर समाज की कृतज्ञता ज्ञापित की। इसी ग्रंथ में उनके कुल 80 लाख रुपयों के दान की सूचि भी है।