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जैन- विभूतियाँ
उच्छिष्ट मानकर वे नितांत सादगी और साधु-संतों के सम्पर्क में जीवन बीताने लगे ।
सेठ हुकमचन्द क्रांतदर्शी थे। उन्होंने अर्जित सम्पत्ति को उद्योग स्थापित करने में लगाया । बंगाल की प्रसिद्ध टैक्सटाईल एवं स्टील मिल स्थापित करने का श्रेय उन्हीं को है । वे खादी और सूती कपड़े के उद्योग को महत्त्व देने के पक्षधर थे । विदेशी कपड़े की खपत को रोकने एवं भारतीय मुद्रा 'बचाने के उद्देश्य से उन्होंने इन्दौर में मोटे कपड़े का निर्माण शुरु किया । इन कारखानों के लगने से करीब 15000 तकनीशियनों एवं मजदूरों को रोजगार मिला ।
सेठ साहब व्यापार में नफे एवं नुक्शान में सदैव समान रहते। उन्होंने बहुत उतार-चढ़ाव देखे । वे भाग्य के प्रति आशावादी रहते थे। देश-विदेश के बाजारों के उतार-चढ़ाव पर वे नजर रखते। उनका विश्लेषण अधिकांश सही रहता। उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था - साहस। बड़ा से बड़ा दांव खेलने की क्षमता । इसी क्षमता ने उन्हें " मर्चेंट किंग'' बना दिया । स्वदेशी उद्योग धंधों में वे अग्रणी थे ।
सेठ साहब की औद्योगिक सफलता ने उनकी उदारता और परोपकारी वृत्तियों को पंख दे दिए। माता से विरासत में मिले धार्मिक संस्कार उजागर हुए। उन्होंने शीशमहल, इन्द्रभवन, ईतिवारिया नूं मंदिर आदि भव्य ईमारतों का निर्माण करवा कर समाज को समर्पित कर दिया | विश्रांति भवन, महाविद्यालय, बोर्डिंग हाउस, कंचनबाई श्राविकाश्रम, औषधशाला, प्रसूति गृह, भोजनशाला आदि अनेक संस्थानों का निर्माण उनकी दानशीलता के ज्वलंत उदाहरण हैं ।
बचपन से ही उन्हें धर्मचर्या में रूचि थी। वे धर्मप्रेमी बंधुओं के साथ हर रोज पूजन, स्वाध्याय करते । त्यागी एवं विद्वान् व्यक्तियों का सत्संग उन्हें रुचिकर था। सन् 1942 में इन्दौर में शांतिमंगल विधान एवं अष्टानिका पर्व के दरम्यान उन्हें मानपत्र भेंट किया गया। सोनगढ़ के दिगम्बर जैन यात्राधाम की उन्होंने तीन बार यात्रा की। वे पूज्य कानजी स्वामी की आध्यात्मिक संहिताओं से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने वहाँ जैन मन्दिर निर्माण के लिए एक