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जैन-विभूतियाँ टाईम्स ऑफ इण्डिया ने उन्हें 'Merchant Prince of Malwa' घोषित किया। वे यह जानते थे कि सट्टे की आय अस्थिर होती है। उन्होंने अपने बच्चों को सदैव सट्टा न करने की सीख दी। सन् 1925 में सेठजी ने मुम्बई में आत्म प्रेरणा से कुछ काल तक सट्टा खेलना बन्द कर दिया।
उन्होंने अपनी समझ-बूझ, समृद्धि एवं साहस के बल पर अनेक बार अकेले ही बेधड़क भारत के समस्त बाजारों को कॉर्नर किया था। उनके एक लक्षी सौदों से विदेशों तक में सनसनी फैल जाती थी। वे सौदे इतने एकान्तिक होते थे कि लोगों को उनके असफल हो जाने की आशंकाएँ होने लगती थी। जीवन-मरण की सी उत्तेजनाओं की उन घड़ियों में भी सेठ साहब हमेशा प्रसन्न मुख रहते। वे आधी-आधी रात स्थिर मन से आगामी कल का प्रोग्राम बनाते। रातों-रात किसी को खबर लगे बिना दूसरे दिन उनके निर्देश बाजारों में पहुँचते। बाजार का सारा संतुलन उलट-पुलट हो जाता। आश्चर्य यह था कि हर ऐसे मौकों पर विजय श्री उन्हीं के हाथ लगती एवं करोड़ों की सम्पदा उनके भण्डार में प्रवेश करती।
उन्होंने 22 लाख रुपयों का एक धार्मिक ट्रस्ट बना दिया। उनके दत्तक पुत्र सेठ हीरालालजी कासलीवाल के अनुसार सेठ साहब की इस तेजस्विता एवं यशस्वी जीवन-महल की नींव रखने का श्रेय उनकी प्रथम धर्मपत्नि को था, जिनके अल्पवयसीय संसर्ग ने सेठ साहब की जीवन सरणी को आलोकित कर दिया था।
सर सेठ के रेशमी कुरते या अंगरखे पर गले में मोटे पन्नों का बहुमूल्य हरा कंठा, सर पर महाराजाओं की सी किश्तीनुका लाल पगड़ी सदा शोभायमान रहती। अंतिम वर्षों में उनकी जीवन शैली आमूलचूल बदल गई। उनको नंगे पावों, खुला सिर, देह पर मात्र एक धोती बाँधे और ओढे सार्वजनिक कार्यों में भाग लेते देखकर लोग दाँतों तले अंगुली दबा लेते थेक्या यही सेठ हुकमचन्द हैं जो कभी झल्लेदार सामन्ती जरी की पगड़ी और मलमली अचकन, गले में हीरों-पन्नों के गलहार और हाथों में अमूल्य हीरों की झलमलाती अंगूठियाँ पहने सबसे मुखातिब होते थे। निराली आन, बान, शान और साहूकारों का बेताज बादशाह कहलाते थे। सारे वैभव विलास को