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________________ जैन-विभूतियाँ 91. सर सेठ हुकमचन्द (1874 - 1959 ) 357 जन्म : 1874, इन्दौर पिताश्री : सेठ सरूपचन्द कासलीवाद माताश्री : जबरीबाई उपाधि : रायबहादुर, सर, जैन सम्राट दिवंगति : 1959 अनुपम साहस विशिष्ट बुद्धिमत्ता एवं प्रबल पुरुषार्थ से देश के औद्योगिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों को समृद्ध करने वाले सेठ हुकमचन्द बीसवीं शदी के जैन कीर्तिआकाश के उज्ज्वल नक्षत्र थे । उन्होंने अपार भौतिक सम्पदा अर्जित की एवं उसे धर्म एवं समाजोद्धारक कार्यों में लगाया। अपनी अविचल सहिष्णुता, उदारत, निरभिमानिता, परोपकारिता एवं विद्वत्-प्रेम के लिए वे मशहूर थे 1 पिता सेठ सरूपचन्द कासलीवाल के घर माता जबरीबाई की कुक्षि से सन् 1874 में एक बालक ने जन्म लिया। बालक के आगमन के बाद से ही परिवार पर लक्ष्मी की कृपा होने लगी। सेठ सरूपचन्द अपनी तीक्ष्ण बुद्धि के लिए प्रसिद्ध थे । हुकमचन्द को यह सौभाग्य विरासत में मिला । पाँच वर्ष के नन्हे बालक के लिए घर ही पर विद्यार्जनार्थ एक गुरू का प्रबंध कर दिया गया। वे 15 वर्ष के हुए तब अपने परिवार के व्यापार में हाथ बँटाने लगे थे। सन् 1886 में सेठजी का प्रथम विवाह हुआ जब वे मात्र 12 वर्ष के थे । विधि की ऐसी लीला बनी कि सेठजी ने चार विवाह किए - दूसरा सन् 1899 में, तीसरा 1906 में एवं अंतिम 1915 में उनकी अंतिम सहधर्मिणी श्रीमती कंचन बहन साक्षात लक्ष्मी का अवतार थी । वे परोपकारी एवं विदुषी थीं । 1 उस वक्त मध्यप्रदेश एवं गुजरात में अफीम बहुतायत से पैदा की जाती थी। इन्दौर अफीम के सट्टे के लिए प्रसिद्ध था । सेठ हुकमचन्द सट्टे के सर्वोच्च खिलाड़ी थे । उन्होंने इस धंधे से करोड़ों की सम्पत्ति अर्जित की।
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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