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जैन-विभूतियाँ छाले पड़ गए। परन्तु उनके आगमन की खबर सुनकर ही सारे उपद्रव शांत हो गए। इसी तरह स्थानकवासी मुनि सोहनलालजी की "जैन तत्त्वादर्श'' विषयक मूर्तिपूजा के विधान को दी गई चुनौती का भी वही हश्र हुआ।
आचार्य विजय वल्लभसूरि विशिष्ट प्रकार की सर्जक प्रतिभा के धारक थे। शब्दों पर उनका असाधारण प्रभुत्व था। वे शास्त्रज्ञाता तो थे ही, हर विषय में उनका ज्ञान अगाध था। वे सहज काव्य सर्जक थे। उन्होंने भक्ति रस से ओत-प्रोत अनेक ढालों की रचना की। उन्होंने 'नवयुग निर्माता' नाम से अपने गुरु आत्माराम जी महाराज का जीवन चरित्र लिखा। सिद्धांत चर्चा के अनेक ग्रंथों की सर्जना की, यथा-श्री जैन भानु, विशेष निर्णायक वल्लभ प्रवचन, नवपद साधना अने सिद्ध आदि उनके बहुश्रुत विवेचन ग्रंथ हैं। उनके विनम्र स्वभाव एवं पवित्र आचार का ही प्रभाव था कि वे अनेक विग्रहों का शमन करने में कामयाब हुए। जयपुर में खरतरगच्छ और तपागच्छ के बीच, स्थानकवासी और मूर्ति पूजकों के बीच, पालनपुर में संघ के ही दो पक्षों के बीच, मलेर कोटला में नवाब व हिन्दुओं के बीच संघर्ष टालने का श्रेय उन्हीं को है। इसी तरह जंडियाल, गुजरानवाला, नवसारी, पूना, बुरहानपुर, पालिताना, मुम्बई आदि अनेक स्थलों में विविध पक्षों में उभरी समस्याओं का समाधान करने में आपका योगदान महत्त्वपूर्ण था। आपकी सरलता एवं वात्सल्य भाव लोगों में प्रेम भाव जगाता था।
आप क्रांति द्रष्टा थे। आपने प्रवचन के लिए सर्वप्रथम लाउडस्पीकर का प्रयोग शुरु किया। वे वचनसिद्ध संत थे। "सब कुछ अच्छा हो जायेगा''- कहकर आपके अन्त:करण से निकले आशीर्वाद वासक्षेप से कम नहीं होते थे-उनके चमत्कार की अनेक कहानियाँ श्रद्धालुओं में प्रचलित हैं। वि.सं. 1981 में लाहौर में आपको जैनसंघ द्वारा आचार्य पद से विभूषित किया गया। भृगुसंहिता में दी हुई आपकी कुण्डली एवं फलाशय के अनुसार आपका दूसरे जन्म में मोक्ष सुनिश्चित है।