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________________ जैन-विभूतियाँ 4. आचार्य विजयवल्लभ सूरि (1870-1954 ) जन्म पिताश्री माताश्री दीक्षा ं दिवंगत : बड़ौदा, 1870 : दीपचन्द श्रीमाल : इच्छा बाई 1886 1954, मुम्बई : : 13 बीसवीं सदी के सुप्रसिद्ध धर्मगुरु, तत्त्वज्ञ, शिक्षा प्रेमी एवं समाज सुधारक आचार्य विजय वल्लभ सूरि तपागच्छीय आचार्य विजयानन्द सूरि (आत्मारामजी) के पट्टधर थे। आपने सारे भारत विशेषत: पंजाब में 'जैन धर्म' को लोकप्रिय एवं सुदृढ़ बनाया। आपका जन्म वि.सं. 1927 में बड़ौदा में हुआ। आपके पिता बीसा श्रीमाल शाह दीपचन्द जी एवं माता इच्छाबाई ने आपका नाम छगनलाल रखा। अल्प वय में ही मातापिता की मृत्यु हो गई । वि.सं. 1943 में आपने 17 वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की। आचार्य आत्मारामजी के पास रहकर ही आपने विद्याभ्यास प्रारम्भ किया। आप जल्द ही आगम, न्याय, व्याकरण एवं ज्योतिष शास्त्रों में निष्णात हो गए । अचानक सं. 1953 में आचार्य आत्मारामजी का गुजरानवाला में देहांत हो गया । श्रावक समाज में एक समर्थ शास्त्रज्ञाता एवं व्याख्याता के रूप में आपकी ख्याति बढ़ती गई। सं. 1964 में जब गुजरात की तरफ विहार कर रहे थे तभी सहवर्ती संत विजय कमल सूरि का तार मिला कि " गुजरानवाला में सनातनधर्मी एवं जैनेतर लोगों ने गुरुदेव आत्मारामजी के ग्रंथों 'अज्ञान तिमिर भास्कर' की आलोचना कर जैनियों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी है।" ऐसे उपद्रवों का निडरता पूर्वक सामना करने में अभ्यस्त विजयवल्लभजी तुरन्त गुजरानवाला के लिए रवाना हो गए। गुरु के आदर्शों पर आई आँच उन्हें सहन नहीं हुई । साढ़े चार सौ मील का सफर बीस दिन में उग्र विहार से तय कर वे गुजरानवाला पहुँचे। बेहद गर्मी के कारण उनके पाँवों में
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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