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जैन-विभूतियाँ
309 छाई रही। सेठ खेतसी ने बिना किसी भेदभाव के खुले हाथों दान दिया। बम्बई के दसा ओसवाल जाति कोर्ट के लिए लाखों रुपये खर्च किये एवं महाजन वाड़ी को कर्ज से मुक्ति दिलाई। सं. 1974 में समाज की ओर से सर पुरुषोत्तम ठाकुरदास की अध्यक्षता में उन्हें मान-पत्र भेंट कर 'जातिभूषण' के विरुद से विभूषित किया गया। सुथरी में साधु-साध्वियों के चातुर्मासों, जिनालयों एवं बिम्ब प्रतिष्ठानों पर लाखों रुपये खर्च किए। सं. 1963 में खेतसी ने 52 ग्रामों के संघ सुथरी में निमंत्रित कर जाति मेले का आयोजन किया जो अभूतपूर्व था। सं. 1972 में हालार में भी लाखों रुपये खर्च कर ऐसे ही जाति मेले का आयोजन किया। सं. 1969 में शत्रुजय तीर्थ के लिए विशाल संघ समायोजित किया। खेतसी ने अनेक तीर्थों पर धर्मशालाएँ बनवाईं, हालार के अनेक गाँवों में पाठशालाएँ और जिनालय बनवाए। पं. मदनमोहन मालवीय को बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के लिए एक लाख रुपये प्रदान कर वहाँ जैन चेयर की स्थापना की। खेतसी ने अनेक शैक्षणिक संस्थाओं एवं अनाथालयों को लाखों रुपये दान दिये।
सं. 1973 में कलकत्ता में हुई जैन श्वेताम्बर कॉन्फ्रेंस में खेतसीजी का सम्मान किया गया। सरकार ने उन्हें 'जस्टिस ऑफ पीस' चुना। जनता प्रेम से उन्हें 'दुल्ला राजा' कहने लगी। उन दिनों किसी सरकारी संस्थान को दो लाख रुपये प्रदान कर 'सर' की उपाधि ली जा सकती थी किन्तु दुल्ला सेठ ने इसे अस्वीकार कर गरीबों का सरताज कहलाना पसन्द किया।
सेठाणी वीरबाई ने समय-समय पर संघ समायोजन किया एवं लिंबडी में जिनालय बनवाया। खेतसी के पुत्र हीरजी भी प्रतापी पुरुष थे। उन्होंने पूना की भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट आदि अनेक संस्थानों को मुक्तहस्त अवदान दिये। सं. 1977 में पेरिस में अचानक हीरजी भाई चल बसे। सेठ खेतसी पुत्र शोक से विह्वल हो उठे और अधिक तीव्रता से जनता की सेवा में जुट गए। सं. 1978 में लिंबडी में उनका देहांत हुआ। ओसवाल समाज ऐसे औघड़ दानी को पाकर गौरवान्वित हुआ।