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________________ जैन-विभूतियाँ गृहस्थ बंधु के अनुरोध पर 'आत्म सिद्धि' नामक ग्रंथ की रचना की, जो गुजराती में जैन धर्म का सर्वोत्तम ग्रंथ माना जाता है। श्रीमद् ने इसमें 142 दोहों के माध्यम से जैन दर्शन का सार प्रस्तुत किया है। स्त्रीनीति-बोध, काव्यमाला, वचन सप्तसती, पुष्पमाला आदि उनकी 16 वर्ष वय पूर्व की रचनाएँ हैं। उनके जीवन के हर कार्य में निर्ग्रन्थ की सी अनासक्ति झलकती थी। स्त्री को वे सत्संगी समझते थे। कभी किसी ने उन्हें किसी वैभव के प्रति मोह करते नहीं देखा। धोती, कुरता, अंगरखा और पगड़ी-यही उनकी वेश-भूषा थी। उनके हर कार्य में वीतराग की विभूति के दर्शन होते थे। उनकी दैनन्दिनी में लिखे विचारों में कहीं कृत्रिमता नहीं है। वे ज्ञानी और कवि तो थे ही, पर मुख्यत: आत्मार्थी थे। वे कहते थे : "काव्य, साहित्य एवं संगीत आदि कलाएँ आत्मार्थ हो, तभी श्लाघ्य हैं अन्यथा निरर्थक। वास्तविक ज्ञान शास्त्र, काव्य चातुरी या भाषा सौष्ठव से परे आत्मा से संबंधित है।'' महात्मा गाँधी उनसे बहुत प्रभावित थे। सन् 1893 में दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधी जी को सेवा परायणता के ईसाई दर्शन से भारतीय अध्यात्म की ओर मोड़ने का श्रेय श्रीमद् राजचन्द्र भाई को ही है। शतावधान और ज्योतिष उनके ज्ञान का अंग अवश्य थे, पर स्मरण शक्ति का प्रयोग करना एवं पूर्व जन्म की बातें करना कुछ समय बाद उन्होंने छोड़ दिया था। वे सदा आत्मा साधना में लीन रहने लगे। इस सम्बन्ध में उनकी दैनन्दिनी का एक उल्लेख उनके सम्पूर्ण जीवन दर्शन को उद्घाटित करता है-"हम अपने किसी भी प्रकार के अपने आत्मिक बंधन के कारण संसार में नहीं रह रहे हैं। स्त्री से पूर्व में बाँधा हुआ कर्म निवृत्त करना है, कुटुम्ब का पूर्व में लिया हुआ कर्ज वापस देकर निवृत्त होने के लिए उसमें निवास करते हैं। उन जीवों की इच्छाओं को भी दु:खित करने की इच्छा नहीं होती। उसे ही अनुकम्पा से सहन करते हैं, परन्तु इसमें किसी प्रकार की हमारी इच्छा नहीं है।''
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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