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________________ 10 जैन-विभूतियाँ अद्भुत धारणा शक्ति का परिचय दिया। तत्कालीन भारत में वे ही एकमात्र शतावधानी थे। संवत् 1943 में श्रीमद् रायचन्द के शतावधान प्रयोग से सारे भारत में तहलका मच गया था। हाई कोर्ट के जजों, विद्वानों एवं महात्माओं ने उनकी स्मरण शक्ति के चमत्कार की प्रशंसा की थी। वे रातों-रात प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचे गए पर श्रीमद् ने इसे कभी महत्त्व नहीं दिया। वे अवधान के साथ ही अलौकिक स्पर्शेन्द्रिय के स्वामी थे। एक बार देखकर आँख बन्द करके मात्र स्पर्श से विभिन्न पुस्तकों के नाम बता सकते थे। रसोई को देखकर चखे बिना और स्पर्श किये बिना कौन-सी बानगी में नमक कम या अधिक है-कह देना उनकी इन्द्रिय शक्तियों के चरमोत्कर्ष का साक्षी था। उनके अतीन्द्रिय ज्ञान संबंधी अनेक घटनाएँ प्रचलित हैं। इस प्रकार श्रीमद् में अलौकिक विभूतियों का साक्षात्कार देखकर आत्मा की अनन्त शक्तियों की प्रतीति होती है। _ वि.सं. 1944 में उनका विवाह गाँधीजी के परम मित्र डॉ. प्राण जीवन मेहता के बड़े भाई पोपटलाल की पुत्री झंबकबाई से हुआ। विवाहोपरांत वे जवाहरात के व्यापार में लग गए। ग्यारह वर्ष तक वे गृहस्थाश्रम और व्यापार में संलग्न रहे। इनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। संवत् 1946 में श्रीयुत रेवाशंकर जगजीवन के साझे में बम्बई में जवाहरात का काम शुरु किया। व्यापार में कुशल होते हुए भी इसे वे संसार की माया और प्रपंच मानकर तटस्थ बने रहते थे। किसी को ठगने के लिए कुछ नहीं करते थे। ग्राहक या विक्रयकर्ता की चालाकी वे शीघ्र समझ जाते थे। उन्हें वह असह्य होती थी। हीरे मोती की परीक्षा अत्यन्त सूक्ष्मता से करते। उनका अनुमान प्राय: सत्य सिद्ध होता। लाखों रुपए के सौदे की बात करके तत्क्षण आत्मज्ञान की गूढ़ बातें पढ़ने या लिखने बैठ जाते-ऐसा व्यापारी नहीं, ज्ञानी ही कर सकता है। उनका कहना था कि धार्मिक मनुष्य का धर्म उसके प्रत्येक कार्य में दिखाई देना चाहिए। धर्मकुशल मनुष्य, व्यवहार कुशल नहीं होता-इस वहम को राजचन्द्र भाई ने असत्य सिद्ध कर दिखाया। कई बार एकान्त साधना के लिए वे चरोत्तर एवं इडर के जंगलों में चले जाते थे। इस तरह पाँच वर्ष तक कठोर तपश्चर्या की। एक
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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