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जैन-विभूतियाँ
3. श्रीमद् राजचन्द्र (1867-1900)
जन्म : बवाणिया (काठियावाड़),
1867 पिताश्री : श्री रवजी भाई मेहता माताश्री : श्रीमती देवाबा उपलब्धि : जाति स्मरण ज्ञान, 1874 दिवंगति : राजकोट, 1900
ओसवाल (श्रीमाल) जाति के अनमोल हीरों में एक श्रीमद् राजचन्द्र थे। उनके सत्संग में बैठने वालों एवं प्रशंसकों का कहना है कि वे पच्चीसवें तीर्थंकर समान थे एवं उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। उनका पूरा नाम श्रीमद् राजचन्द्र रवजी भाई मेहता था। श्रीमद् का जन्म काठियावाड़ के बवाणिया गाँव में संवत् 1924 (सन् 1867) की कार्तिक पूर्णिमा को हुआ। आपके पिता रवजी भाई एवं दादा पंचाण भाई मूलत: माणकवाड़ा (मोरवी) से सं. 1892 में बवाणिया आकर बसे थे। जब आप सात वर्ष के थे, तभी किसी परिचित गृहस्थ की सांप के डसने से अकाल मौत हो गई। उसे देखकर आपके मानस में उथल-पुथल मच गई। मृत्यु संबंधी तीव्र जिज्ञासा ने मन के आवरण हटा दिये। कहते हैं उसी समय आपको पूर्व जन्म का आभास (जाति स्मरण ज्ञान) हुआ एवं आपके अन्त:करण में वैराग्य के अंकुर फूटे। प्रारम्भ में आप दादा की तरह कृष्ण भक्त थे। एक साधु रामदास से कंठी भी बंधवाई थी। परन्तु आपका वैराग्य एवं त्यागप्रधान चित्त धीरे-धीरे जैन धर्म की ओर झुकता गया। तेरह वर्ष की आयु में पूर्णत: जैन रंग में रंग गये। आप असाधारण स्मरण शक्ति के धारक थे। एक बार पढ़ लेने मात्र से कालान्तर में उसे ज्यों का त्यों दोहरा देना आपके लिए सहज था। 14-15 वर्ष की उम्र में ही आप अवधान करने लगे थे। 19 वर्ष की वय में बम्बई में डॉ. पिटर्सन की अध्यक्षता में एक सार्वजनिक सभा में शतावधान कर आपने