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जैन-विभूतियाँ
299 थी। अगस्त में जब पुन: कैरोनरी थ्रम्बोसिस का आक्रमण हुआ उसके साथ जूझते हुए अन्तत: 10 दिसम्बर, 1983 को आप स्वर्गवासी हो गए।
वेसठ साल की अल्पायु में ही आपने विपुल मात्रा में ग्रन्थ, निबन्ध, समीक्षाएँ लिख डाली थीं। आपने भगवान महावीर की जो जीवनी लिखी वह अपने ढंग की निराली थी। इसमें उन्होंने महावीर को देव के रूप में नहीं, एक महामानव के रूप में चित्रित किया है।
आपने भगवती सूत्र जैसे विशाल ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद किया। यह ग्रन्थ भगवान महावीर और उनके शिष्य इन्द्रभूति गौतम के कथोपकथन के रूप में संयोजित हैं। दुर्भाग्य से आप इस ग्रन्थ के मात्र तीन भाग ही प्रकाशित कर सके।
आपने दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प सूत्र आदि का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया है। दशवैकालिक व कल्पसूत्र तो 'मोतीलाल बनारसीदास' द्वारा प्रकाशित हुए हैं। दशवैकालिक सूत्र में सम्यक् चारित्रविधि का व कल्पसूत्र में जिन चरित्र और समाचारी आदि का वर्णन है। उत्तराध्ययन सूत्र का आपने कविता में अनुवाद किया है और इसे आपने भगवान महावीर की अन्तिम देशना कहा है। कारण इसके 36वें अध्याय की देशना करते-करते ही महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए थे।
इन आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त आपने मुनिश्री महेन्द्रकुमार जी प्रथम की जैन कहानियों को अंग्रेजी में तीन खण्डों में अनुवाद किया है। इन कहानियों के अनुवाद के पीछे आकर्षण था- इन कथानकों के जैन तत्त्वों का। जैन दर्शन का मुख्य तत्त्व हैं कर्मवाद जो अन्य दर्शनों से कुछ भिन्न हैं। मनुष्य के कर्म उसे जन्म-जन्म में परिभ्रमण कराते हैं। अन्तत: शुभ संयोग से वह साधु धर्म की ओर आकृष्ट होकर मोक्ष प्राप्त करता है।
दर्शन उनके अध्ययन, मनन का प्रिय विषय था। जब भी उन्हें समय मिलता वे दार्शनिक किताबें पढ़ते। अरअयेल, स्पेंगलर, टायनवी का अध्ययन करने के पश्चात् जब उनकी दृष्टि भारतीय इतिहास पर पड़ी तो उन्हें लगा कि हमारे इतिहासकारों ने हमें जो इतिहास दिया है वह सही नहीं है। अत: उन्होंने दार्शनिक पृष्ठभूमि की सहायता से उसे नवीन