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जैन-विभूतियाँ
279 मोतीलाल जी के कनिष्ठ सुपुत्र श्री सुन्दरलाल का जन्म सन् 1900 में हुआ। मात्र 15 वर्ष की वय में दूकान एवं प्रकाशन व्यवसाय का कार्यभार उनके किशोर कंधों पर आ पड़ा। आपको कर्म-कुशलता एवं धर्म परायणता अपने पिता से वरदान रूप में मिली। आप संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी एवं गुजराती भाषाओं के अच्छे जानकार थे। सुन्दरलालजी बड़े प्रतिभाशाली विद्वान् एवं जैन धर्म में निष्ठा रखने वाले श्रावक थे। तांत्रिक अनुसंधान में भी आपकी गहरी रुचि थी। आपने प्राचीन भारतीय दर्शन, वाङ्मय एवं इतिहास ग्रंथों का प्रकाशन चालू रखा। धीरे-धीरे उनकी साख विदेशों में भी जमने लगी।
सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लाला सुन्दरलाल लाहौर (पाकिस्तान) से विस्थापित होकर भारत आए। उस समय वे खाली हाथ थे। लाहौर की सम्पत्ति खोने का कोई मलाल नहीं था। कहते हैं घर की भैंसे भी उन्होंने अपनी जमादारिन (मेहतर) के सुपुर्द कर दी। लालाजी ने बनारस आकर अपनी गृहस्थी फिर से जमाई। कहते हैं लालाजी ने बनारस के बाज़ार में लकड़ी के पट्टे पर किताबें रखकर दूकान का काम शुरु किया था। इसमें सहयोगी हुए उनके सुपुत्र श्री शांतिलाल। धीरे-धीरे प्रकाशन कार्य शुरु हुआ एवं पटना एवं दिल्ली में विस्तारित हुआ। भारतीय दर्शन, धर्म, योग एवं संस्कृति के अलभ्य ग्रंथों का प्रकाशन कर 'मोतीलाल बनारसीदास' फर्म पूरे विश्व में विख्यात हो गयी। फर्म की कुल बिक्री का आधा तो विदेशों को निर्यात होता है। पुस्तक प्रकाशन ने अब एक उद्योग का रूप ले लिया है। भारत से हर वर्ष करीब 60,000 नामांकित ग्रंथ विश्व की 18 भाषाओं में प्रकाशित होते हैं। अमरीका, जर्मनी, इंग्लैण्ड, जापान, ऑस्ट्रेलिया एवं अन्य यूरोपीय देशों में इनकी अच्छी खपत है। प्राचीन भारतीय संस्कृति, धर्म एवं योग के प्रति विदेशों में ज्ञान-पिपासा दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ी है। अब इस फर्म से अध्यात्म, इन्डोलॉजी एवं अन्य विषयों की पुस्तकें प्रचुर मात्रा में प्रकाशित होती हैं।
लाला सुन्दरलाल के धार्मिक संस्कार बहुत प्रबल थे। सत्य की खोज की लगन उनमें बहुत पुरानी थी। जैन धर्म एवं महावीर के सन्देश को संसार के सम्मुख प्रस्तुत करने का उनका आन्तरिक संकल्प था। उन्होंने अनेक