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जैन-विभूतियाँ के उस पार खदेड़ दिए गये या उन्हें आर्य संस्कृति में समाहित कर लिया गया। ऋषि दर्घतमस पहले द्रविड़ मूल के नायक थे, जिन्होंने आर्यों को भारतीय मूल की आध्यात्मिकता का उद्बोधन दिया। ऋग्वेद में उनके नाम की पच्चीस ऋचाएँ हैं।
उक्त शोध-ग्रंथों के अलावा श्री रामचन्द्र जैन ने युनानी लेखक McCryndle के प्राचीन तम यात्रा संस्मरणों ''Ancient India" का शोधपूर्ण टिप्पणियों के साथ अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया। उनके अनेक शोध-प्रबंध अप्रकाशित भी रहे।
आचार्यश्री तुलसी द्वारा प्रणीत अणुवत आंदोलन से सक्रिय जुड़ाव रखने और उसमें उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को दृष्टि में रखते हुए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने एडवोकेट रामचन्द्र जैन को 'लौह पुरुष' के सम्बोधन से सम्मानित किया।
जैन साहब की हार्दिक अभिलाषा थी कि इतिहास, धर्म, अध्यात्म, वेद और दर्शन विषयों की उनके द्वारा संग्रहित महत्त्वपूर्ण पुस्तकें किसी ऐसे संस्थान को दे दी जाएँ जो संस्कृति और धर्म की शोध एवं प्रभावना को समर्पित हो। उनकी मृत्योपरांत उनके परिवार ने उनका वृहद् ग्रंथ संग्रह "जैन विश्वभारती'' लाडनूं को प्रदान कर दिया। पुस्तकों के प्रति उनके अनूठे अनुराग का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 81 वर्ष की वृद्धावस्था में भी वे प्रतिदिन 12 घंटे नियमित अध्ययन व लेखन कार्य में संलग्न रहते थे।
__27 अप्रैल, 1995 को इस कर्मयोगी का नश्वर शरीर पंचतत्त्व में विलीन हो गया। जीवन के अंतिम वर्षों में सचमुच ही उन्होंने एक वीतरागी फकीर का सा जीवन यापन किया। आडम्बरों और अंधविश्वासों को उन्होंने कभी प्रश्रय नहीं दिया। अपने आत्मीय जनों को भी मृत्योपरांत किसीभी तरह का परम्परागत रूढिजन्य आडम्बर न करने की हिदायत दी।