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जैन-विभूतियाँ योजनाबद्ध नहीं होता था। वे स्वयं नहीं जानते थे कि उनकी कथा कब, कैसे और क्या मोड़ लेगी? मानो कोई अपौरुषेय वाणी उनके मुख से बहती चलती।
जैनेन्द्रजी का जन्म अलीगढ़ जनपद के बोड़ियागंज ग्राम में श्रीमती रमादेवी की कोख से सन् 1909 में हुआ। दो वर्ष बाद ही पिता की मृत्यु हो गई। माताश्री एक जैन महिला विद्यापीठ की अधिष्ठात्री थी। बड़ा मुश्किल से गुजारा होता था, इसलिए जैनेन्द्रजी की शिक्षा इंटर से आगे न जा सकीं। प्रसिद्ध गाँधीवादी विचारक महात्मा भगवानदीन उनके मामा थे। उन्हीं से जैनेन्द्र ने गांधी-दर्शन का संस्कार पाया। सन् 1921 में गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में शरीक होने वे दिल्ली आ गए। कुछ समय लाला लाजपत राय के 'स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में रहे। 'कर्मवीर' के यशस्वी सम्पादक माखनलाल चतुर्वेदी के सम्पर्क में आए। सन् 1923 में नागपुर के एक पत्र के संवाद लेखन का कार्य किया। तभी गाँधीजी का यह समर्पित सेनानी गिरफ्तार कर लिया गया। तीन माह की जेल हुई। जेल से छूटकर फिर दिल्ली आए। आजीविका हेतु चन्द माह कलकत्ता भी रहे, पर रास नहीं आया। निराश होकर लेखन को ही आजीविका का साधन बनाने की ठानी और मृत्यु पर्यन्त उसी को समर्पित हो रहे।
तरुण जैनेन्द्र संकोची थे। उनकी प्रथम कहानी सुभद्राकुमारी चौहान एवं महात्मा भगवानदीन के हाथ पड़ी। वे लड़के की मौलिक प्रतिभा से चमत्कृत हो गए। लेखन चल निकला। प्रथम उपन्यास 'तपोभूमि' स्व. ऋषभचरण जैन के साथ मिलकर लिखा। फिर 'परख' लिखा। साहित्यजौहरी पं. नाथूराम प्रेमी ने रत्न परख लिया एवं 'परख' प्रकाशित किया। उसने हिन्दी साहित्य में धूम मचा दी। ‘परख' के लिए जैनेन्द्रजी को हिन्दूस्तानी अकादमी का पुरस्कार (1931) मिला। फिर 'त्याग-पत्र', 'सुनीता' आदि उपन्यासों का सिलसिला चल पड़ा। समाज को एक चिन्तक मिला। गौर वर्ण, तेजस्वी ललाट, पैनी नासिका, खादी का कुर्ता-धोती, कन्धे पर चादर धारण किए जैनेन्द्रजी ने हिन्दी के वाङ्मय जगत में अपनी एक भव्य छवि बना ली। प्रभाकर माचवे द्वारा संकलित