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________________ जैन-विभूतियाँ 267 'जैनेन्द्र के विचार' ग्रंथ में जैनेन्द्रजी का सर्वतोमुखी विचारक के रूप में विराट् व्यक्तित्व प्रकट हुआ। सन् 1935 में जब उनका उपन्यास 'सुनीता' चित्रपट में धारावाहिक छप रहा था तो साहित्य जगत में बड़ा बावेला मचा। उपन्यास हठात चर्चा का विषय बन गया। अंतिम परिच्छेद के प्रतीकात्मक दृश्य में नायिका सुनीता अनावृत्त होकर अपने प्रिय पात्र हरिप्रसन्न को नग्न सत्य का सामना करने की चुनौती देते हुए कहती है- "मुझे चाहते हो, तो मुझे लो" और अपने एक-एक वस्त्र उतारते हुए कहती जाती है''मैं तो यह साड़ी नहीं हूँ, आदि।'' हरिप्रसन्न इस अनावृता की ओर आँख भर देखने का भी साहस नहीं जुटा पाता। दोनों हाथों से अपनी आँखें ढक लेता है और भाग खड़ा होता है। इसी दृश्य को लेकर आलोचकों ने तीखे व्यंग्य किए, परिहास भी किया। जैनेन्द्रजी ने 'हँस' में एक प्रतिलेख लिखकर अपना मन्तव्य स्पष्ट किया। भारतीय संस्कारों में पत्नी नारी का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उकेरा गया यह चरित्र समस्या का समाधान न भी हो पर वर्तमान 'घर' और 'बाहर' के द्वन्द्व को चरितार्थ करने में सक्षम है। __ इतनी कम शिक्षा-दीक्षा के होते हुए भी जैनेन्द्रजी के व्यक्तित्व का प्रभा मण्डल इतना ज्वाज्वल्यमान था कि भारत के सभी प्रदेशों से उन्हें चिन्तन गोष्ठियों के लिए आमंत्रण मिलते रहे। अंग्रेजी पर भी उनकी पकड़ अच्छी थी अत: यूरोप, अमरीका, रूस भी हो आए। प्रश्नोत्तर परिषदें चलती। वे आक्रमणकारी प्रश्नकर्ता की बात के स्वीकार से प्रारम्भ करते और अन्त में उसी पर प्रश्न चिह्न लगा देते। उनकी मनीषा में जैनों की अनेकान्त दृष्टि सक्रिय रहती क्योंकि सत्ता और वस्तु की सम्यक पहचान के लिए सापेक्ष दृष्टि ही नैसर्गिक है। राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने जैनेन्द्र जी की रचनाओं पर मुग्ध होकर कभी कहा था- 'रविन्द्र और शरत् को हमने हिन्दी में अब एक साथ पाया।'' उनके उपन्यासों में व्यक्ति स्वातंत्र्य की उत्कट चेतना है। रूढ़ियों के प्रति विद्रोह है। नारी मुक्ति आन्दोलन के सूक्ष्म तन्तुओं का उनके
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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