________________
N
जैन- विभूतियाँ
नहीं हो सके । श्रेष्ठि वर्ग ने अर्ज कर आचार्यश्री से रुक जाने की अर्ज की। आचार्यश्री ने बड़ी शालीनता से उस आग्रह को ठुकरा कर समय पर विहार किया । इसी तरह बड़ोदरा से बिहार के समय एक ओर प्रसंग बना। कलकत्ता से सेठ बद्रीदास मुकीम पधारे थे। एक दिन और रुक जाने की अर्ज को आचार्यश्री ने अमान्य कर दिया। उन्होंने श्रीमंतों की पराधीनता कभी स्वीकार न की एवं उन्हें खुश करने के लिए एकाधिक राहें खोज कर अपने साधुत्व को कभी मलिन नहीं किया ।
शनैः-शनैः आचार्यश्री की ख्याति विदेशों में भी फैली। सन् 1893 में अमरीका के शिकागो शहर में विश्व धर्म परिषद् का आयोजन हुआ जिसमें आचार्यश्री को निमंत्रित किया गया। आचार्यश्री स्वयं तो न जा सके। आपने अमरीका ( शिकागो) में हुई प्रथम 'विश्व धर्म परिषद्' में जैन श्रावक श्री वीरचन्द्र राघवजी गाँधी को अपने प्रतिनिधि के रूप में धर्म प्रचारार्थ भेजा। समुद्र पार जाने के कारण उस वक्त समाज में वीरचन्द्र भाई को संघ बहिष्कृत करने का आन्दोलन उठा, पर गुरुदेव आत्मारामजी के प्रभाव से वह अपनी मौत स्वयं मर गया। रायल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता के तत्कालीन मन्त्री डॉ. रुडोल्फ हारनाल ने आपको जैनधर्म की धुरी माना । आचार्यश्री का संस्कृत एवं अर्धमागधी भाषा पर पूरा अधिकार था। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें प्रमुख हैं - जैन तत्त्वादर्श, अज्ञान तिमिर भाष्कर, तत्त्व निर्णय प्रासाद, सम्यक्त्व शल्योद्वार, श्री धर्म विषयक प्रश्नोत्तर, नव तत्त्व, उपदेश बावनी, जैन गतवृक्ष, शिकागो प्रश्नोत्तर, जैन मत का स्वरूप, ईसाईमत समीक्षा, चतुर्थ स्तुति निर्णय आदि। उन्होंने अनेक स्तवनों की रचना की। ये सभी ग्रंथ आपके अगाध शास्त्र ज्ञान के परिचायक हैं। " अज्ञान तिमिर भाष्कर ' ग्रंथ में आपने वैदिक कर्मकांडों, मांसाहार, विभिन्न मतों में मुक्ति की 'अवधारणा' आदि विषयों की विशद् चर्चा की है। आप मंत्रविद्या के उपासक थे।
1896 में चतुर्मास हेतु आचार्यश्री गुजरानवाला (पाकिस्तान) पधारे। वहीं आपका स्वर्गवास हुआ। आपके पट्टधर श्री विजय वल्लभ सूरि ने