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जैन-विभूतियाँ निवासी लाला जोधामलजी के घर हुआ। लाला जी ढूँढक मतावलम्बी थे। 1853 में 18 वर्ष की अवस्था में बालक दित्ताराम ने ढूँढक मुनि जीवनराम जी से दीक्षा ली। उनका दीक्षा नाम आत्माराम रखा गया। 5-6 वर्षों में बालक मुनि सूत्रों में निष्णात हो गये। मूल आगम, चूर्णि, टीका नियुक्ति भाष्यों आदि के सूक्ष्म अध्ययनोपरान्त आगम ग्रंथों के प्रचलित अर्थ से सत्योन्मुखी आत्माराम संशय से भर उठे। समुचित समाधान न पाकर उन्होंने क्रांति का बिगुल फूंका। 1875 में उन्होंने अपने 15 साथियों के साथ अहमदाबाद में तपागच्छीय मुनि बुद्धिविजय जी से नूतन दीक्षा ग्रहण की। 1878 में वापिस पंजाब पधार कर आपने अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण एवं प्रतिमा प्रतिष्ठाएँ करवाईं। अनेक मुमुक्षुओं को दीक्षा दी। 1886 में पालीताना में तपागच्छ धर्म संघ द्वारा पिछली चार शताब्दियों में आप पहली बार आचार्य पदवी से विभूषित किये गये एवं तब से आप आचार्य विजयानन्द सूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपके आचार्य पद समारोह में पंजाब एवं राजस्थान से 35,000 श्रावक-श्राविकाएँ सम्मिलित हुए। आपने अनेक जैन तीर्थों की यात्रा की। उस समय तक धार्मिक उपासरों पर यतियों का शिकंजा कायम था। किसी भी साधु को चातुर्मास करने से पूर्व यतियों की इजाजत लेनी पड़ती थी एवं उधर से गुजरते हुए यतियों को वन्दन करना अनिवार्य था। आचार्य प्रवर ने इस प्रथा के औचित्य को स्वीकार नहीं किया। शनै:-शनै: यह प्रथा ही विलुप्त हो गई।
आचार्यश्री का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था। प्रशस्त ललाट एवं अलौकिक तेजमय नेत्र धारी क्षत्रियोचित देह यष्टि साधारण जन-मानस में श्रद्धा का संचार कर देती एवं प्रत्युत्पन्न मति वालों को सहज ही परास्त कर देती थी। आचार्यश्री के शारीरिक बल एवं हृदय की करुणा दर्शाते अनेक प्रसंग प्रचलित हैं। वे समय के बड़े पाबन्द थे। अहमदाबाद से बिहार के समय का एक प्रसंग उनकी आत्म निर्भर साहसिकता का परिचायक है। उस समय नगर सेठ प्रेमा भाई का श्रावक समाज पर बड़ा प्रभाव था। किसी कारणवश विहार का समय हो जाने पर भी वे उपस्थित