________________
जैन-विभूतियों
263 रही थी और राजस्थान के 80 प्रतिशत व्यापारी अपना माल-असबाब बिक्री पर कोलकाता छोड़ राजस्थान लौट रहे थे, हरखचन्दजी निधड़क कोलकाता में ही डटे रहे। सन् 1943 के बाद वे बीकानेर रहने लगे।
__ तैंतीस वर्ष की वय में ही जीवन-मरण के प्रश्न उन्हें मथने लगे। सन 47 आते-आते वे जीवन के लोक-व्यवहार को त्याग, आत्मानुभव के एकाकी पथ पर निकल पड़े। पावापुरी के पावन परिसर में निर्बाध साधनारत रहे। सन् 51 में उनकी चेतना ने ऊर्ध्वारोहण का नया आयाम लिया। सन् 59 से 80 तक कोलकाता का जैन भवन उनके दैहिक क्रियाकलापों एवं आत्मोत्थान का साक्षी रहा। मात्र एक वल्कल चीर उनकी देह पर रहने लगा।
नंगे पाँव जाते आते थे। अध्ययन, स्वाध्याय एवं साधना में तल्लीन रहते थे। एक बार सन् 1951 में बीकानेर गए। बड़े लड़के की शादी करनी थी। उसे 1952 में निपटाया और फिर कोलकाता रहने लगे। सन् 1955 में दो बड़ी हृदय विदारक दुर्घटनाएं हुईं। कुछ ही महीनों के अंतराल से उनके तरुण बेटे एवं युवा दामाद काल कवलित हो गए। सन् 1957 में पूज्य पिताजी का भी देहावसान हो गया। ये मर्मान्तक घटनाएँ उन्हें आत्मलीनता से विचलित न कर सकी। वे निरन्तर आत्मोत्थान में लगे रहे। सन् 1985 में उनकी धर्मपत्नि चल बसी।
. सन् 85 से मृत्यु पर्यन्त वे बीकानेर दैहिक प्रवास पर रहे। वे वास्तव में प्रज्ञा पुरुष थे। सदा जागृत रहने को वे साधना का मूल मंत्र मानते थे। प्रकृति के सहज नियमों में उनकी गहरी आस्था थी। जैन धर्म को वे प्रकृत धर्म मानते थे। भौतिक स्थितियों के विश्लेषण की उनमें अतीन्द्रिय शक्ति थी। अपने कनिष्ठ भ्राता किशनचन्दजी को नैसर्गिक करुणा एवं वात्सल्य भाव से लिखे उनके पत्र इस निर्विवाद सत्य के नि:सन्देह साक्षी हैं और साक्षी हैं उनकी परम शिष्या अमरीकन भक्त श्रीमती लिओना स्मिथ क्रेमर जिसने मात्र उनके साथ हुए पत्राचार की बदौलत जैन धर्म अंगीकार कर अपने को धन्य किया। सजगता, शांति एवं निर्लिप्तता की ये पावन सांसें 30 मार्च, 1989 की शाम परम अस्तित्व