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जैन- विभूतियाँ
61. श्री हरखचन्द बोथरा (1904-1989)
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: पुनरासर, 1904
पिताश्री
: रावतलमल बोथरा
दिवंगत : कोलकाता, 1989
जन्म
थली प्रदेश की शुष्क भूमि पर ज्ञान की ऐसी अजस्र पावन धारा शायद ही कभी बही हो एवं चेतन के उर्ध्वगमन की ऐसी ऊँचाई शायद ही अन्य किसी जैन गृहस्थ श्रेष्ठि ने छुई हो जैसी श्री हरखचन्दजी बोथरा ने छुई। वे न सिर्फ जैनसमाज के ललाट पर वरन् सम्पूर्ण मानवता के भाल पर गौरव तिलक हैं। उनका विचक्षण व्यक्तित्व कमल की पांखुरी पर स्थित पारदर्शिनी ओस की बूँद की तरह है। उनकी निर्लिप्त सख्शियत में सम्यक्त्व रच पच गया था ।
आपका जन्म पुनरासर में सन् 1904 में हुआ। उनके पिताश्री रावतलमलजी बोथरा की संयमित जीवनशैली ने परिवार को साधनामय संस्कार दिए। हरखचन्दजी की शिक्षा कोलकाता में हुई। कुशाग्र बुद्धि एवं अंग्रेजी भाषा के प्रति अत्यधिक रूझान होते हुए भी वे व्यापार की ओर अग्रसर हुए। परन्तु उनका धर्मानुरागी हृदय अपने मूल की पहचान के लिए व्यग्र रहा। उन्होंने संस्कृत व प्राकृत भाषा एवं जैन आगमों का गहरा अध्ययन किया। वे महात्मा गाँधी से प्रभावित हो खादी पहनने लगे और अंत तक पहनते रहे । प्रचलित सामाजिक प्रथा के अनुसार मात्र 14 वर्ष की वय में हरखजी का विवाह हो गया । पूज्य पिताजी से मिली संस्कारों की विरासत के साथ वे धार्मिक, व्यावसायिक एवं गार्हस्थ्य जीवन में आगे बढ़ते रहे ।
इस बीच में सन् 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरु हुआ। उन्होंने जमकर उसका फायदा उठाया। जिन दिनों कोलकाता में गोलीबारी हो