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जैन-विभूतियाँ
257 ट्रिनिडाड, गुयाना, टोबेगो आदि देशों की भी यात्रा की। उन्होंने अन्यान्य देशों की सांस्कृतिक संस्थानों के आमंत्रण पर रूस, बर्मा, थाईलैण्ड, कम्बोडिया, वियतनाम, सिंगापुर, मलाया, मोरीशस, जापान, आस्ट्रेलिया, फिजी, न्यूजीलैण्ड एवं यूरोप के विभिन्न देशों का भ्रमण किया। सन् 1980 में फिर एक भारतीय प्रतिनिधि की हैसियत से इंग्लैण्ड, कनाडा और अमरीका में आयोजित विभिन्न आयोजनों में शामिल हुए। सन् 1981 में जापान के टोकियो शहर में आयोजित 'वर्ल्ड पीस कॉन्फ्रेंस' में जैन विद्या एवं गाँधी-दर्शन के अधिकारी विद्वान् की हैसियत से शामिल हुए।
सन् 1975 में संत ऐलाचार्य विद्यानन्दजी के सान्निध्य में दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक समारोह में उन्हें 'साहित्य-वारिधि' की उपाधि से सम्मानित किया गया। भगवान महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव समिति में उन्हें सदस्य मनोनीत किया गया।
उनके प्रकाशित साहित्य में समाज विकास माला के अन्तर्गत रचित 174.पुस्तकों का अवदान अविस्मरणीय है। दस प्रमुख इतिहास पुरुषों के अभिनन्दन ग्रंथ सम्पादित करने का भी श्रेय यशपालजी को है। उनके मौलिक साहित्य में कहानियाँ मुख्य हैं, जिनमें नव प्रसून, मैं मरूँगा नहीं, एक थी चिड़िया, सेवा करे सो मेवा पाये, बेताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी उल्लेखनीय हैं। उन्होंने एक उपन्यास भी लिखा। यात्रा साहित्य के तो वे पुरोधा माने जाते हैं। जै अमरनाथ, उत्तराखण्ड के पथ पर, रूस में 46 दिन (सोवियत लेंड नेहरू एवार्ड से पुरस्कृत), कोनार्क, जगन्नाथ पुरी, अजन्ता एलोरा, यूरोप की परिक्रमा, पड़ोसी देशों में (यू.पी. सरकार द्वारा पुरस्कृत) आदि उनके उल्लेखनीय यात्रा संस्मरण हैं।
उन्होंने अनेक रेडियो फीचर्स भी लिखे । स्टीफन ज्वेग के तीन लोकप्रिय अंग्रेजी उपन्यासों का उन्होंने हिन्दी अनुवाद कर प्रकाशित किया। उनके विचारोत्तेजक लेखों के चार संकलन भी प्रकाशित हुए। 'तीर्थंकर महावीर' और 'साबरमती का संत' उनका जीवन-चरित्र परक ग्रंथ अवदान है। लेखन एवं पत्रकारिता में यशपालजी ने अपने नाम के अनुरूप यश अर्जित किया।