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जैन-विभूतियाँ हिस्सा लेने लगे लेकिन नानी की भूख-हड़ताल से द्रवित हो उदयपुर लौट आना पड़ा। फिर से नाटक प्रदर्शनों का दौर चला। सामरजी की प्रेरणा से संपूर्ण मेवाड़ में अनेक मण्डलियों की स्थापना हुई। मामा को जब यह सहन न हुआ तो उनका घर छोड़कर डॉ. मेहता के स्काउट आश्रम चले आये। जब
डॉ. मेहता के विद्याश्री देवीलाल सामर
भवन की स्थापना हुई (गंगापार नृत्य नाट्य में राम की भूमिका में)| तो सामरजी उसे समर्पित हो गये। वहीं से लोक कला के अभिनव प्रयोग शुरु किये। उसके सांस्कृतिक मंच 'कला-मण्डल' की नींव रखी। बुद्ध, गांधी, राम एवं कामायनी पर उनकी लिखी एवं निर्देशित नाट्य प्रस्तुतियों में विद्याभवन के डेढ़-डेढ़ सौ कलाकार अभिनय करते थे एवं समूचा उद्यान ही रंगमंच बन जाता था।
नाट्य लेखन के साथ गद्यगीत एवं कविता भी सामरजी लिखते रहे जो विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। उनकी पहली कहानी 'तिरस्कृत' संवत् 1985 में छपी। 'चन्द्रलोक', 'मृत्यु के उपरान्त' एवं 'आत्मा की खोज' नामक नाटक संग्रह प्रकाशित हुए। अनेक उच्चस्तरीय
एकांकी लिखकर उन्होंने साहित्य के इस पक्ष को गरिमा प्रदान की। । अनेक एकांकी आकाशवाणी केन्द्रों से प्रसारित हुए। सं. 2004 में सामरजी प्रसिद्ध नृत्यकार उदयशंकर के सम्पर्क में आये एवं अल्मोड़ा में उनके
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