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जैन-विभूतियाँ थे। जैन धर्म और साहित्य के प्रचार में आप सक्रिय योगदान देते थे। कलकत्ता जैन समाज के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में आपका बहुत योगदान रहता था।
मौलिक सृजन के साथ अन्य मनीषियों की अच्छी रचनाओं को भी बे बंगला एवं अंगेजी में अनुदित करते थे। मुनि रूपचन्द्रजी की 'भीड़भरी आँखें' और 'भूमा' काव्य ग्रन्थों के बंगला अनुवाद को बंगाली कवियों ने बहुत पसन्द किया। हिन्दी के श्रेष्ठ कवि श्री कन्हैयालालजी सेठिया के 'निर्ग्रन्थ' काव्य को आपने बंगला में अनुदित किया जो कि प्रकाशित भी हो चुका है। मुनि रूपचन्द्र जी की 'भूमा' का आपने अंग्रेजी अनुवाद भी किया है। उनके अनुदित जैन साधक कवि चिदानन्द के पद जब जैन जर्नल में प्रकाशित हुए तो उन पदों ने विदेशी पाठकों की दृष्टि भी आकृष्ट कर अनेकों के जीवन को प्रभावित किया।
गणेश ललवानी शिल्पी भी थे। उनकी चित्र-प्रदर्शनी 1965 में आपके बन्धु-बान्धवों के उद्योग से अनुष्ठित हुई थी। पूर्व की भाँति समयाभाव से दत्त चित्त न हो पाने पर भी आप प्राय: चित्र अंकन कभी भी करते रहते थे। जैन विषयों पर अंकित चित्र अक्सर प्रकाशित भी होते रहे हैं। किन्तु आप मुख्यत: निसर्ग शिल्पी थे। तेलरंग, जलरंग, इन्क, पैस्टेल सबका व्यवहार वे अनयास ही कर सकते थे जबकि कभी कहीं किसी गुरु से उन्होंने शिल्प-शिक्षण नहीं लिया। वस्तुत: संगीत. साहित्य, शिल्पकला, धर्मतत्त्व की व्याख्या आदि सभी उनके चरित्र विकास के पथ पर सामयिक आश्रय मात्र हैं, एक परिपूर्णता की ओर उत्तरण।
सन् 1994 में कलकत्ता के जैन समाज, सार्वजनिक संस्थाओं एवं उनके बंगाली आत्मीय प्रशंसकों द्वारा उनके उदात्त कृतित्व एवं निश्छल व्यक्तित्व के अभिनन्दन का अभूतपूर्व संयोजन हुआ। इस अवसर पर उन्हें एक लाख रुपये की थैली एवं शॉल समर्पित किया गया। उस निस्पृही साधक ने तत्काल समस्त राशि सार्वजनिक समाज हितकारी प्रवृत्तियों के संचालन हेतु भेंट कर दी।
चन्द दिनों बाद ही वे यह पार्थिक शरीर त्याग महाप्रयाण कर गए।