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जैन-विभूतियाँ
- 245 आए। फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से सन् 1946 में बंगला साहित्य में एम.ए. पास किया।
इसी मध्य आपके विवाह की बातचीत भी चल रही थी। अच्छे सम्बन्ध आए। एक तो गाड़ी-बाड़ी के साथ-साथ इटली जाकर चित्रांकन सीखने का व्यय भार तक वहन करने को प्रस्तुत थे। किन्तु ललवानीजी ने आजीवन विवाह न करने की इच्छा प्रकट की। माता-पिता के प्रबल आग्रह पर एक बार सहमत भी हुए तो अस्वस्थ हो गए। अत: माता-पिता ने दबाव न डालना ही उचित समझा। एतदर्थ आप आजीवन अविवाहित ही रहे।
1947 भारतीय इतिहास का एक स्मरणीय वर्ष है। भारतवर्ष ने 15 अगस्त के रक्तक्षयी दंगों के मध्य स्वतन्त्रता प्राप्त की। इसी वर्ष सेप्टेम्बर में आपने अपने पूज्य पिताजी को खो दिया। आपके अग्रज प्राध्यापक श्री कस्तूरचन्दजी ललवानी इस समय कलकत्ते के जयपुरिया कॉलेज में लेक्चरार थे। अत: इन्हें बाध्य होकर राजशाही में पिता का व्यवसाय देखना पड़ा। 1949 के अन्त में वे कलकत्ता आए। इसी मध्य नगेन दत्त की मृत्यु हो गई। एतदर्थ इनका संगीत पर्व भी बन्द हो गया। अब रह गया चित्रांकन, कविता और साहित्य एवं इसके साथ भी चिरकाल की जिज्ञासा "जीवन का उद्देश्य क्या है?" ___ निकल पड़े तीर्थ पर्यटन में। घूम आए काशी, प्रयाग, अयोध्या, वृन्दावन, मथुरा, हरिद्वार और ऋषिकेश। काम में आपका मन नहीं लगता था। इस कारण आपके अग्रज चिन्तित थे। वे इन्हें Temple Press के श्री शारदाचरण वन्द्योपाध्याय के पास ले गए। स्थिर हुआएक पत्र निकलेगा, उसके सम्पादक बनेंगे श्री उपेन गंगोपाध्याय'। इसी पत्र में काम करेंगे गणेश ललवानी। किन्तु पत्र नहीं निकल सका। कलकत्ता में ही किताब की दुकान खुली 'उत्तरायण' | इसी उत्तरायण में इन्होंने तीन वर्ष तक काम किया। इस समय इनका बहुतों से परिचय हुआ। जब श्रीमती वीणा चक्रवर्ती ने बंगला भाषा में 'कथाशिल्प' का प्रकाशन प्रारम्भ किया तब उनके आग्रह पर आप कथाशिल्प का कार्य देखने लगे। इस