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________________ 246 जैन-विभूतियाँ पत्र के लिए स्वयं भी बंगला भाषा में लिखने लगे-कविता, कहानी, प्रबन्ध, समालोचना, यात्रा संस्मरण। कुछ दिनों के लिए आप Rhythm पत्र से भी जुड़े। तत्पश्चात् विनयकृष्ण दत्त के आग्रह पर 'दर्शक' गोष्ठी में भी आपने सहयोग दिया। अब 'दर्शक' के लिए धर्म और नीति पर लिखने लगे। जैन होकर भी इतने दिनों तक जिस धर्म को लेकर वे चर्चा करते थे वह था-हिन्दू धर्म, वैष्णव धर्म, तन्त्र, सांख्य, योग और वेदान्त। अब दृष्टि गयी जैन धर्म की ओर। अत: जैन कथानकों को लेकर कहानियाँ लिखने लगे। वे कहानियाँ प्रकाशित हुई 'गल्प भारती' और 'कथाशिल्प' में। चार वर्षों तक प्रकाशित होने के बाद कथाशिल्प बन्द हो गया। अत: गणेश ललवानी इस बार निकल पड़े हिमालय भ्रमण को। यमुनोत्तरी, गंगोत्तरी, गोमुख होते हुए पाँवाली की चढ़ाई का अतिक्रम कर केदारनाथबदरीनाथ के हिम शिखरी तीर्थ स्थल पहुंच गए। पथ की यह परिक्रमा एक मास तक चली। आप प्राय: 400 मील पैदल चले। बाद में इस भ्रमण वृतान्त को 'विंश शताब्दी' में प्रकाशित करवाया। काम में आपका मन नहीं लगता था एतदर्थ आपके अग्रज को फिर आजीविका की चिन्ता ने घेर लिया। इन्हें कार्य में खींचने के लिए श्री सुमतिचन्दजी सामसुखा ने अपने जैन शास्त्रों के सुप्रसिद्ध विद्वान् पिता श्री पूरणचन्दजी सामसुखा के अभिनन्दन ग्रन्थ संयोजन-सम्पादन का भार सौंपा। अभिनन्द ग्रन्थ प्रकाशित हुआ। अब जैन भवन में कार्य करने के लिए बुलाहट आयी। ललवानी जी की इच्छा नहीं थी कार्य में आने की। पर अग्रज और श्री सुमतिचन्द जी सामसुखा के आग्रह से अन्तत: कार्य-भार ग्रहण करना ही पड़ा। ___ 1963 में आपने जैन भवन को अपना योगदान देना प्रारम्भ किया। यथार्थत: आपका कर्म-जीवन इसी वर्ष से प्रारम्भ हुआ। अब तो आपका जीवन जैन-भवन से अभिन्न रूप में जुड़ गया। यह जीवन एक साधक का जीवन था। इस जीवन ने इन्हें सुप्रसिद्ध बना दिया न केवल पश्चिम बंगाल में बल्कि भारत और भारत के बाहर भी। जो जैन धर्म के विषय
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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