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जैन-विभूतियाँ काल में उन्होंने बहुत महत्त्वपूर्ण चित्रों का सर्जन किया। अपने गुरू श्री ईश्वरीप्रसाद वर्मा से सीखी मिनियेचर शैली में हाथी दाँत पर उन्होंने अद्भुत चित्रों का निर्माण किया। राजगृह के प्राकृतिक एवं आध्यात्मिक सौन्दर्य से अभिभूत चित्रों की एक श्रृंखला ही रच डाली। संवत् 2008 में वे जैन तीर्थ स्थल पालिताना गए। तीर्थ के भव्य सौन्दर्य को रूपायित करते वहीं मात्र
52 वर्ष की अवस्था में उनका अकस्मात देहांत हो गया। उनके बनाए चित्र प्रकृति के सूक्ष्म चित्रांकन, नारी सौन्दर्य के अंकन एवं भावाभिव्यंजना में बेजोड़ हैं।
इन्हीं हीराचन्दजी के सुपुत्र थे श्री इन्द्र दूगड़। इन्द्र बाबू का जन्म सन् 1918 में हुआ। कल्पनाशील मन, तूलिका और रंग उन्हें विरासत में मिले। पिता की देखरेख में चित्रांकन प्रारम्भ हुआ। प्रकृति से उन्हें प्रेम था। धीरे-धीरे उनकी चित्रशैली में निखार आता गया। इन्द्र बाबू भी शांति-निकेतन गए। वहाँ पितृ-गुरु श्री नन्दलाल बसु का निर्देशन उन्हें मिला। भारतीय सौन्दर्य तत्त्व एवं कला सौष्ठव के पाठ उन्हीं से पढ़े। इस प्रकार दीक्षित होने पर भी इन्द्र बाबू की चित्रकला पर गुरु का प्रभाव कुछ भी नहीं पड़ा।
संवत् 1996 में रामगढ़ काँग्रेस अधिवेशन में स्थल एवं मंच की साज-सज्जा के लिए चार कलाकार आमंत्रित किये गये, इनमें इन्द्र बाबू भी थे। उनके बनाए बिहार के प्राचीन इतिहास सम्बंधी चित्रों ने प्रथम बार कला रसिकों की दृष्टि आकृष्ट की। संवत् 2003 में राजगिर के विस्तृत प्रांतर, प्राकृति छटा और इतिहास बोध से अभिभूत पिता और पुत्र दोनों ने तूलिका सम्भाली और अनेक चित्रों का सृजन किया। जहाँ हीराचन्द जी के चित्रों में सूक्ष्म रेखाओं एवं स्निग्ध रंगों का समावेश था,