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जैन- विभूतियाँ
हुआ । अपनी लाखों की प्रेक्टिस छोड़कर सामाजिक कर्त्तव्य को सर्वोपरि मानते हुए जजशीप स्वीकार करना उनके न्याय-बोध का परिचायक था । अपने निर्णयों में तथ्यपरक निष्पक्षता के कारण वे हमेशा याद किये जाएँगे । सन् 1964 में वे उच्चतम न्यायालय दिल्ली के माननीय जज मनोनीत हुए। उनमें तथ्यों के जंगल में मुख्य बात तत्काल ढूँढ़ लेने की अद्भुत क्षमता थी । इसी कारण बिना तैयारी आने वाले वरिष्ठ वकील भी उनसे सकपकाते थे। वे हमेशा साफ और सत्य बात पसन्द करते थे एवं जल्द ही तथ्यों के हार्द्र तक पहुँच कर मूल प्रश्न पर आ जाते थे, जिस कारण बाल की खाल खींचने वाले विधिवेत्ताओं की एक नहीं चल पाती थी । उनके अनेक निर्णय विधिजगत के मील के पत्थर माने जाते हैं ।
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सन् 1969 में उच्चतम न्यायालय से अवकाश लेने के बाद भी वे सक्रिय रहे। भारत सरकार ने उनकी निष्पक्ष निर्णायकता का सम्मान करते हुए उन्हें 'गोदावरी जल विवाद ट्रिब्यूनल" का चेयरमेन नियुक्त किया। इस विवाद में उनके निर्णय की सभी पक्षों ने सराहना की। सन् 1979 में विवाद पर अपना निर्णय देने के बाद वे कलकत्ता आकर रहने लगे। आपने लॉ ऑफ आर्बिट्रेशन पर एक ग्रंथ लिखा जिसे विधि न्यायालयों में बड़े सम्मान से उद्धृत किया जाता है। सन् 1986 की 12 जून को उनका देहांत हुआ। उन्होंने अपनी सौरभ से विधि जगत को ही नहीं महकाया, ओसवालों एवं सम्पूर्ण जैन समाज की गौरवशाली परम्परा को भी अक्षुण्ण रखा ।