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जैन-विभूतियाँ अग्रज से अनुमति प्राप्त कर आप श्री हेमविजयजी के कर-कमलों द्वारा उदयपुर में अपनी शिखा पर वासक्षेप प्राप्त करते हुए यति रूप में दीक्षित हुए।
खरतगच्छीय यति श्री सागरचन्द्रजी के सान्निध्य में न्याय, कोश, काव्य, अलंकार इत्यादि का विशेष अभ्यास करते हुए आपने व्याकरण पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया। अपने आत्मोत्कर्ष एवं ज्ञान सूर्य की सहस्त्र रश्मियों से आपने भारतीय दर्शन को प्रोभाषित किया। आपकी अनेकानेक विशेषताओं के कारण आहारे नगर में श्रीसंघ की सम्मति से श्री प्रमोदसूरिजी ने समारोह पूर्वक आपको 'सूरि' पद देते हुए. आपका नाम 'राजेन्द्र सरि' घोषित किया और श्रीसंघ ने भक्तिपूर्वक महोत्सव मनाया। उस वक्त चारों दिशाओं में एक ही नाम राजेन्द्रसूरि की गूंज ध्वनित होती रही। वह दिन स्वयं अमर हो गया। आपने गच्छ सुधार निमित्त यति समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, जर्जर और विकृत परम्परा, रूढ़ियों और शिथिलता को समाप्त करवाने के लिए नौ-सूत्री सुधार योजना प्रस्तुत की जिसे श्रीसंघ से स्वीकृत कराकर आप सुधारवादी नायक के रूप में स्थापित हुए। आपने संसार-वर्धक समस्त उपाधियों का त्यागकर सदाचारी, पंचमहाव्रतधारी जैसे सर्वोत्कृष्ट पद को प्राप्त करने हेतु संपूर्ण क्रियोद्धार द्वारा सच्चे साधुत्त्व का अधिग्रहण किया।
सूरि पदवी के पश्चात् आपका पहला चातुर्मास खाचरौद नगर में हुआ। इस चातुर्मास की खास विशेषता रही त्रिस्तुतिक सिद्धांत का पुनरोद्धार । तत्कालीन श्रमण समाज में इस सिद्धांत को लेकर कई आचार्यों ने, मुनिवरों ने भयंकर बवाल खड़ा किया, तब आपने उन चुनौतियों को स्वीकार कर उनसे शास्त्रार्थ करते हुए विजयश्री प्राप्त की। आपने समाज के उत्थान हेतु कन्यापाठशाला, दहेज उन्मूलन, वृद्धविवाह निषेध आदि का आजीवन प्रचार-प्रसार किया। आप पर्वतों की हरियाली को वनउपवनों की शोभा, शांति एवं अन्तर सुख देने वाली बताकर, उनकी रक्षा हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है-कहकर पर्यावरण रक्षण के लिए जोर देते रहे। आत्मशुद्धि हेतु अभिग्रह परम्परा आपको बहुत ही प्रिय