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1. आचार्य विजय राजेन्द्र सूरि (1827-1906)
जन्म : भरतपुर, 1827 पिताश्री : ऋषभदास पारख माताश्री : केसर बाई दीक्षा : यति दीक्षा, 1847 पन्यास पद : नागौर, 1852 दिवंगति : 1906
विक्रम संवत् के बीसवें शतक के पूर्वार्ध की जैन धर्म प्रभावक महान विभूतियों में आचार्य विजय राजेन्द्र सूरि का स्थान सर्वोपरि है। यति एवं साधु जीवन में व्याप्त शिथिलाचार के प्रति सर्वप्रथम क्रांति शंख फूंकने का श्रेय सूरिजी को है। विश्व विख्यात कृति 'अभिधान राजेन्द्र कोश' के रचनाकार के रूप में आप चिरस्मरणीय हैं।
भरतपुर नगर में सन् 1827 की पोष सुदी सप्तमी गुरुवार के शुभ दिन श्रेष्ठीवर्य श्री ऋषभदासजी पारेख की भार्या केसरबाई की कुक्षी से एक ऐसे दिव्य नक्षत्र का उदय हुआ, जिसने जिन-शासन की महान विभूतियों में स्थान प्राप्त किया एवं जिन्होंने अपने तप, त्याग और संयम द्वारा राजा, महाराजा, बादशाह और नवाबों को प्रभावित कर जनोपयोगी कार्य करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। श्रीमद् अपने बचपन में रत्नराज नाम से जाने जाते थे। शिक्षा शुरु की। वे अपनी बुद्धिचातुर्य और परख करने की कला से उत्साहित हो बहुत जल्द ही अग्रजभ्राता माणेकचंद के साथ द्रव्योपार्जन करने के लिए माता-पिता की अनुमति प्राप्त कर कलकत्ता (बंगाल) होते हुए सिंहलद्वीप (श्रीलंका) पहुँचे जहाँ आप रत्नपरीक्षक के रूप में प्रख्यात हुए। माता पिता की बिमारी की खबर मिलते ही आप तत्काल अपने घर लौट आये और देहावसान तक उनकी भक्तिपूर्वक सेवा करते रहे। आपकी सुषुप्त वैराग्य वृत्ति उस वक्त प्रज्वलित हुई जब सन् 1847 में श्री प्रमोदसूरिजी के प्रवचनों का श्रवण किया। अपने