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जैन-विभूतियाँ में चारबाग स्टेशन से लगा उनका निवास 'ज्योति निकुंज' प्राय: विद्वानों का विश्रामागार बना रहता था। साहित्य के क्षेत्र में रहकर लेखनी के धनी होते हुए भी वह कभी किसी वाद-विवाद में नहीं पड़े। विद्यावारिधि होते हुए भी वह अन्त तक अपने को विद्यार्थी ही मानते रहे और अपने सतत अध्ययन और अनुभव से अर्जित ज्ञान-बिन्दुओं को अपने अन्तस् में संजोते रहे।
एक सक्रिय एवं सन्तोषयुक्त जीवन व्यतीत कर 76 वर्ष की वय में लखनऊ में 11 जून, 1988 की सायंकाल अपने पीछे एक भरापूरा परिवार छोड़ते हुए बीसवीं शदी की इस विभूति ने इस लोक से प्रयाण किया। भले ही डॉक्टर साहब की पार्थिव देह अब हमारे बीच नहीं है, वे अपनी कृतियों से अमर है। उनका प्रेरणास्पद व्यक्तित्व हमारी स्मृतियों में बसा हुआ है और उनके पुत्रद्वय-डॉ. शशिकान्त और रमाकान्तअपने पिताश्री द्वारा प्रदीप्त ज्ञान-ज्योति की मशाल थामे हुए हैं।
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