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________________ 213 जैन-विभूतियाँ जैन विद्या की शोध से डॉक्टर साहब का प्रगाढ सम्बन्ध प्रारम्भ से ही रहा। वे 'अनेकान्त', 'जैन सिद्धान्त भास्कर' और 'जैन एन्टीक्वारी' प्रभृति लब्धप्रतिष्ठ शोध-पत्रिकाओं से उनमें अपने शोध-पत्रों का योगदान कर जुड़े। कालान्तर में वर्षों तक इन शोध-पत्रिकाओं के वह मानद प्रधान सम्पादक भी रहे। श्री स्यादवांद महाविद्यालय (वाराणसी), प्राकृत जैन रिसर्च इन्स्टीट्यूट (वैशाली), भारतीय ज्ञानपीठ, विश्व जैन मिशन, अग्रवाल सभा (लखनऊ), थियोसोफिकल सोसायटी, सर्वधर्म मिलन, बुक क्लब प्रभृति विभिन्न शैक्षणिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं की गतिविधियों में उनका सक्रिय योगदान रहा। अपनी साहित्यिक सेवाओं के लिए यदा-कदा प्राप्त पत्रं-पुष्पं राशि को निर्माल्य मानकर उन्होंने पुण्यार्थ कार्यों के लिए स्वयं 'ज्योति प्रसाद जैन ट्रस्ट' की स्थापना की। वे 'अनन्त ज्योति विद्यापीठ' के अध्यक्ष रहे। इतिहास और जैन विद्या के क्षेत्र में डॉक्टर साहब के अवदान हेतु वर्ष 1957, 1958, 1974, 1979 तथा 1986 में विभिन्न संस्थाओं द्वारा विभिन्न स्थानों पर उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया और उन्हें उनकी विद्वता के अनुरूप 'इतिहास-रत्न', 'विद्यावारिधि' एवं 'इतिहास-मनीषी' के विरुदों से अलंकृत किया गया। डॉ. ज्योति प्रसाद जी ने सरल-सादा जीवन व्यतीत किया। जैन विद्याविद् के रूप में वह अनेक जनों के लिए प्रेरणास्रोत रहे। आबालवृद्ध जो भी उनके सम्पर्क में आते थे उनके निश्छल सरल व्यवहार से प्रभावित हए बिना नहीं रहते थे। सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के अनुसार डॉ. ज्योति प्रसाद जी गीता के स्थितिप्रज्ञ की भाँति थे जो कर्म करने में विश्वास करता हो, किन्तु उसके फल की ओर से उदासीन रहता हो। बिना किसी अपेक्षा के स्वान्त:सुखाय साहित्य-साधना में रत साहित्य व्यसनी डॉ. ज्योति प्रसाद निरभिमानी और स्वभाव से धर्मात्मा तो थे ही, उनमें 'गुणिषु प्रमोदम्' की भावना प्रबल थी। अपने सम्पर्क में आने वाले सभी विद्वानों का स्वागत-सत्कार करके वह प्रभुदित होते थे। लखनऊ
SR No.032482
Book TitleBisvi Shatabdi ki Jain Vibhutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangilal Bhutodiya
PublisherPrakrit Bharati Academy
Publication Year2004
Total Pages470
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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