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जेन-विभूतियाँ अपनी छात्रावस्था से ही डॉक्टर साहब के मन में लेखन और सम्पादन की उत्कंठा रही। सन् 1926 ई. में उन्होंने 'जैन कुमार' नामक हस्तलिखित पत्रिका प्रारम्भ की। किसी सार्वजनिक पत्र में सर्वप्रथम प्रकाशित उनका लेख "जैन धर्म के मर्म की अनोखी सर्वज्ञता" था। वह ब्रह्माचारी शीतल प्रसाद जी की प्रेरणा से लिखा गया था और सूरत से निकलने वाले साप्ताहिक "जैन मित्र'' के 12 अक्टूबर, 1933 के अंक में प्रकाशित हुआ था। उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक 16 पृष्ठीय 'पयूषण पर्व' थी जिसे सन् 1940 में श्री जैन सभा, मेरठ ने छपवाया था।
बहुभाषाविज्ञ डॉक्टर साहब की हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान रूप से प्रवाहमान लेखनी ने इतिहास और संस्कृति, पुरातत्त्व एवं कला, भाषा और साहित्य, धर्म और दर्शन, सामाजिक और सामयिक विषयों को स्पर्श किया। इन विषयों पर प्रसूत दो सहस्त्र से अधिक लेख देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए और लगभग पचास छोटी-बड़ी कृतियों का उन्होंने प्रणयन किया। गहन गंभीर विषय ही नहीं, कहानी-उपन्यास और काव्य सृजन भी उनकी लेखनी से अछूते नहीं रहे।
अपने शोध-प्रबन्ध "The Jaina Sources of the History of Ancient India' में डॉक्टर साहब ने ई.पू. 100 से 900 ई. पर्यन्त एक सहस्र वर्ष की अवधि के भारत के इतिहास की अनेक विवादित तिथियों और जटिल प्रसंगों को जैन साहित्य, अभिलेख एवं अन्य पुरातत्त्वीय प्रमाणों के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न किया है। यह शोध-प्रबन्ध सन् 1964 में दिल्ली के प्रसिद्ध पुस्तक प्रकाशक 'मुंशीराम मनोहरलाल' द्वारा प्रकाशित किया गया था। यह अब अप्राप्य है और इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशनाधीन है।
जैन धर्म एवं संस्कृति की प्राचीनता के सम्बन्ध में जैनेतर जनमानस में व्याप्त भ्रान्ति का निरसन करने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने 'Jainism : The Oldest Living Religion' का प्रणयन किया था। इसमें अनेक पुष्ट प्रमाणों द्वारा उन्होंने यह सिद्ध किया कि जैन संस्कृति के बीज भारतीय वातावरण में सुदूर अतीत तक प्रसार प्राप्त थे।