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जैन-विभूतियाँ
207 1932 में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की साहित्य विशारद परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
अपने अध्ययन-लेखन के प्रसंग में उन्होंने प्राच्य भाषाओं : संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश का तथा आधुनिक भाषाओं : उर्दू, गुजराती, मराठी व बंगाली का ज्ञान अर्जित किया। . अपने छात्र जीवन के दौरान ही वह काँग्रेस सेवादल से भी जुड़े तथा खादी के प्रचार-प्रसार में लगे। सन् 1931 में महात्मा गाँधी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उन्होंने सहभागिता की। बसन्त पंचमी 12 फरवरी, 1929 के दिन मास्टर उग्रसेन कन्सल की सुपुत्री अनन्तमाला से उनका विवाह हुआ।
सन् 1936 में कॉलेज छोड़ने के उपरान्त उन्हें आजीविका हेतु कठोर संघर्ष करना पड़ा। मेरठ में वकालत प्रारम्भ की, किन्तु यह व्यवसाय उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं था। मेरठ में ही उन्होंने एक काँच फैक्ट्री लगाई, जिसे कुछ समय पश्चात् ही बन्द करना पड़ा। लखनऊ में कई वर्ष तक अंग्रेजी औषधियों का विधिवत व्यापार किया। शिमला, विदिशा, हापुड़ और मेरठ में अध्यापन कार्य में रत रहे। उत्तर प्रदेश सचिवालय में अनुवादक का कार्य भी किया। किन्तु ये सब व्यवसाय ज्ञानार्जन के प्रति उनकी रुचि और लगन को बाधित नहीं कर सके और उनका अध्ययन-लेखन निरन्तर चलता रहा। यह उनके बीस वर्ष के समर्पित अध्ययन का परिणाम था कि सन् 1956 में आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें उनके शोध-प्रबन्ध "प्राचीन भारत के इतिहास के जैन स्रोतों का अध्ययन (ई.पू. 100 से 900 ई. पर्यन्त)" पर पी-एच.डी. उपाधि प्रदान की। उनकी अर्हताओं को दृष्टि में रखकर उत्तरप्रदेश शासन ने जिला गजेटियर विभाग, लखनऊ में उन्हें सन् 1958 में दस अग्रिम वेतनवृद्धियाँ देकर 'संकलन अधिकारी एवं उप सम्पादक' के पद पर नियुक्ति प्रदान की। वहाँ से दो वर्ष की सेवावृद्धि प्राप्त कर वह ससम्मान सन् 1972 में सेवानिवृत्त हुए। उनके कार्यकाल में उनके सक्रिय सहयोग से उत्तरप्रदेश के 18 जिलों के गजेटियर तैयार हुए जिनमें इतिहास विषयक आलेख मुख्यतया उन्हीं के रहे।