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जैन-विभूतियाँ जातीय समूहों में सम्बन्ध करने लगे। उत्तरी भारत में मोढ़, मनिहार, भावसार व नागर जैनों के वैष्णव हो जाने को इसी की फलश्रुति मानना चाहिए। दक्षिणी भारत में लिंगायत एवं बंगाल के 'सराक' बन्धु भी इन्हीं कारणों से जैन-धर्म-विमुख हुए। जिन प्रदेशों में जैन कम संख्या में थे वे अन्तत: अधिक संख्या (majority) वाली जैनेतर जातियों के अंग बन गए। समाज एवं धर्म की संकुचित एवं रूढ़िग्रस्त वृत्तियाँ ही उसके विघटन का कारण बनी। जैनाचार्य बुद्धिसागर जी ने "जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह'' ग्रन्थ की अपनी प्रस्तावना में पिछली चन्द सदियों में ऐसे ही उत्तरी भारत के स्वधर्मत्यागी 'जैन' से 'वैष्णव' बने लोगों की 3,00,000 से भी अधिक संख्या सत्यापित की है।"
डॉ. शार्लोटे क्राउजे के अनुसार "जैन समाज में धर्म को रूढ़िगत परम्पराओं के पालन तक सीमित कर दिया गया है। साधारण जन शास्त्रगत सिद्धान्त (थोकड़े), प्रार्थनाएँ (ढाले), स्तवन (ऋचाएँ) रट-रट कर टेप रिकॉर्डर की मानिन उच्चारित करने को ही धर्म-ज्ञान की इतिश्री माने हुए हैं, कोई इन का हार्द्र तो दूर, शाब्दिक अर्थ भी जानने की कोशिश नहीं
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सुश्री क्राउजे जयपुर में जैन श्रावकों के साथ करता। उनके पूजा विधान मात्र औपचारिक रह गये हैं। दौड़ते-भागते वे किसी तरह उन्हें सम्पूर्ण कर अपने-अपने धन्धे लगते हैं। उनके दैनन्दिन क्रिया-कलापों में कहीं भी उनकी छाया तक दृष्टिगोचर नहीं होती। सद्गृहस्थों का ही नहीं, यही हाल साधु-संस्थान का भी है। एक धनी