________________
जैन-विभूतियाँ
201 संगठित प्रसार का सामना करने में वे अक्षम हो गए। जैनों के उपाश्रय एवं चैत्य जन-साधारण के समीप शहरों एवं गाँवों में होते हैं। अत: वे अपनी दैनन्दिन खान-पान की आवश्यकता के लिए गृहस्थों पर ही निर्भर रहते हैं एवं हर समय साधारण स्त्री-पुरुषों के आने-जाने का ताँता लगा रहता है। अत: बिना किसी हस्तक्षेप के गृहस्थ और साधु-दोनों की ही स्वतंत्र सत्ता विकासमान नहीं रह सकी।"
डॉ. शार्लोटे ने बड़ी बारीकी से इस विग्रह की समीक्षा की है। "जैन जातियों की इस फिरका परस्ती के कारण उनमें अपनी-अपनी मान्यताओं के प्रति कट्टरता बढ़ी। साथ ही अनुयायी गृहस्थ घटकों पर उनकी आश्रयिता बढ़ी। इसी के फलस्वरूप जातीय समूहों पर धन्ना सेठों का शिकंजा कसा। ये समूह शनै:-शनै: सीमित होते गए। एक समय ऐसा आया जब समाज व धर्म के ठेकेदारों ने अपनी व्याख्याओं, नियमों एवं आदेशों को चुनौती देने वालों को धर्म व जाति से बहिष्कृत कर दिया। जैन जातियों का उन्नीसवीं सदी में विदेश गमन को लेकर उभरा देशीविलायती विवाद, जिसने समाज की जड़ें हिला दी थी, इसी कट्टरता की फलश्रुति था।
जातीय पंचायतों ने धर्माचार्यों की अहमन्यता को बढ़ावा दिया और धर्माचार्यों ने पंचायतों की ज्यादतियों को प्रश्रय दिया। इनकी कट्टरता के फलस्वरूप ही विधवाओं के पुनर्विवाह को जाति बहिष्कार का हेतु बना लिया गया और विधुरों के पुनर्विवाह को भले ही वे वृद्ध हों और वधू कुमारी बालिका हो, प्रश्रय दिया गया। उस जमाने में वैसे ही वैज्ञानिक संसाधनों एवं स्वास्थ्य-शिक्षा के अभाव में प्रसूति में ही बच्चों को जन्म देती महिलाओं की मृत्यु-दर बहुत अधिक थी। माता-पिता से सम्बन्धित चार-चार गोत्रों में विवाह-निषेध था। इन्हीं सब कारणों से उपयुक्त वधू खोज पाना मुश्किल हो गया, बाल विवाह एवं वधुओं की खरीद फरोख्त को बढ़ावा मिला।
परिणाम स्वरूप धर्मान्तरण होने लगे। बेटी व्यवहार बन्द हुआ तो रोटी व्यवहार भी टूट गया। लोग जाति बहिष्कृत होकर बस्ती के अन्य