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जैन-विभूतियाँ डॉ. शार्लोटे जैन धर्मावलंबियों की निरंतर घटती संख्या का विश्लेषण करते हुए इसका मूल कारण मानती हैं धार्मिक संगठन के विग्रह को। "भगवान महावीर के निर्वाण के 600 वर्ष बाद ही सन् 82 के आसपास उनके अनुयायी दो खण्डों में विभक्त हो गए-दिगंबर और श्वेताम्बर। धीरे-धीरे उनमें भी मतांतर होता ही चला गया। मूर्ति पूजकों एवं अमूर्तिपजकों के खेमे ऐसे गड़े एवं आपसी मतभेद ऐसे बढ़े कि श्वेतांबर में वृहदगच्छ, चैत्यवासी, अंचलगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ, स्थानकवासी तेरापंथी आदि विभेद हुए एवं दिगम्बरों में मूल संघ, काष्ठा संघ, माथुर संघ, गुमान पंथी, बीस पंथी, तोता पंथी संप्रदाय बने। ये विभेद आचार्यों एवं साधुओं की परस्पर असहिष्णुता, अहमन्यता, अनास्था एवं शिथिलता के परिचायक थे। इस निरंतर बढ़ते विग्रह के कारण जैनों के प्रति साधारण जन-मानस की अन्यमनस्कता एवं अनास्था बढ़ी।''
डॉ. शार्लोटे ने धर्म और जाति की परस्पर आश्रयता को भी इस विघटन का बड़ा कारण माना है। "धर्म वैयक्तिक साधना का विषय है भले ही वह साधुगत हो या श्रावकगत। जैन धर्म मूलत: सत्योन्मुखी महाव्रतों पर आधारित है, जो "संसार से अपूठा' यानी वैराग्य मूलक हैं। इन्हीं महाव्रतों के कर्णधार साधु और आचार्य यदि जातिगत श्रेष्ठियों एवं उनके द्वारा उपार्जित संसाधनों के आश्रित या अधीन हो जाएँ तो धर्म साधना की नींव ही हिल न जाएगी। शनै:-शनै: जैनाचार्यों की सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक शिथिलता एवं विभिन्न प्रदेशीय गृहस्थ-घटकों पर उनकी आश्रयता इस कदर बढ़ी कि वे टूटते ही चले गए। इसी कारण विशिष्ट जाति, गोत्र शहर या गाँव से जुड़े साधुओं के उसी नाम से अलग-अलग गच्छ बने जो सदा एक-दूसरे का विरोध करते रहे एवं अपने-अपने अनुयायियों की संख्या के बल पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में मशगूल रहे। वे स्वयं तो टूटे ही सभी अनुयायियों को एकसूत्र में बाँधे रखने वाले इस सेतु के टूट जाने से गृहस्थ घटक भी टूटे। जातियों में भी दस्सा, बीसा, पांचा, ढ़ाया, पंजाबी, काठियावाड़ी, गुजराती, मालवीय, मारवाड़ी, विभेद हुए और इसी कारण हिंदू, शैव एवं वैष्णव धर्म मतावलंबियों के