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जैन-विभूतियाँ सराहा। उन्होंने सन् 1925 में जैनाचार्य विजयेन्द्र सूरि से जैन श्रावक दीक्षा ग्रहण की एवं ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। जैनाचार्य ने उन्हें नये नाम 'सुभद्रा देवी' से विभूषित किया। जैन संस्कृति के प्रति प्रगाढ़ प्रेम से प्रेरित होकर वे जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में ऐसी लगी कि अपना वैयक्तिक सुख-दु:ख सब कुछ न्यौछावर कर दिया। उन्होंने भारत के सुदूर अंचलों में स्थित प्राचीन तीर्थों की यात्रा की। प्राय: सभी जैन संप्रदायों की मान्यताओं का बारीकी से अध्ययन किया एवं शोधार्थ ग्रंथागारों का अवगाहन किया।
शिवपुरी-प्रवास के दौरान डॉ. क्राउजे की भेंट महारानी ग्वालियर से हुई। उन्होंने डॉ. क्राउजे की योग्यता परख ली एवं तत्काल डॉ.
क्राउजे को सिंधिया सरकार के शिक्षा विभाग में डाईरेक्टर पद पर नियुक्त कर दिया, जहाँ निरन्तर सन् 1950 तक वे सेवारत रही। कुछ समय तक उन्होंने सिंधिया सरकार के उज्जैन स्थित शोध संस्थान का क्यूरेटर पद भी संभाला। सन् 1944 में सिंधिया सरकार की ओर से "विक्रम स्मृति महाग्रंथ' का प्रणयन हुआ, जिसमें
डॉ. क्राउजे का शोध-प्रबंध "जैन *
साहित्य और महाकाल मन्दिर'' छपा। इसी कड़ी में उज्जैन शोध संस्थान द्वारा 1948 में प्रकाशित 'विक्रम स्मृति महाग्रंथ श्रृंखला' में डॉ. क्राउजे का शोध प्रबंध 'सिद्धसेन दिवाकर और विक्रमादित्य'' प्रकाशित हुआ। उपाध्याय मुनि मंगल विजयजी ने आचार्य विजयधर्म सूरि के जीवन पर गुजराती भाषा में जो काव्यमय रास 'धर्मजीवन प्रदीप'' प्रकाशित किया उसके एक प्रकरण में उनके द्वारा रचित "डॉ. सुभद्रादेवी रास'' समाविष्ट था। डॉ. क्राउजे हिन्दी, गुजराती एवं अंग्रेजी भाषा में धारा प्रवाह प्रवचन देती थी। उनके प्रवचन एवं सन्देश तात्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में बराबर प्रकाशित होते रहे।