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जैन-विभूतियाँ इसी दौरान डॉ. क्राउजे का एक आलेख सन् 1930 की कलकत्ता यूनिवर्सिटी की शोध पत्रिका 'कलकत्ता रिव्यू (Calcutta Review) में "The Social Atmosphere of Present Jainism' शीर्षक से छपा। पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ने डॉ. शार्लोटे क्राउजे एवं उनके साहित्य पर सन् 1999 प्रो. सागरमल जैन के सम्पादकत्व में जो ग्रंथ प्रकाशित किया है, उसमें भी यह आलेख संग्रहित है। इसका हिन्दी रूपान्तर 'अनेकांत' के वर्ष 1, किरण 8,9,10 अंकों में प्रकाशित हुआ।
डॉ. शालोटे क्राउजे का यह आलेख जैन धर्म के प्रति उनके प्रेम एवं सदाशयता से परिपूर्ण है। उन्होंने आलेख की प्रस्तावना में भारत के दक्षिणी प्रदेशों में सदियों से आवासित सरल एवं मेधावी द्रविड़ों के जैन संस्कारों एवं आचरणों की हृदय से सराहना की है। जैन शास्त्रों में विक्रम संवत् से 200 वर्ष पूर्व जैन आचार्यों के चतुर्विध संघ सहित बारह वर्षी अकाल की विभीषिका से त्रस्त उत्तरी भारत से दक्षिण की ओर प्रयाण के उल्लेख मिलते हैं। कभी ये दक्षिणवासी जैन धर्मावलंबी ही थे। शुरु में आदि शंकराचार्य एवं बाद में वल्लभाचार्य के प्रभाव में राजकीय दबाव से त्रस्त कहने को ये हिन्दू अवश्य कहलाने लगे पर उनके व्यवहार एवं क्रियाकलापों में जैन दर्शन का प्रभाव साफ परिलक्षित होता रहा। हालाँकि किसी भी जैन सम्प्रदाय से उनका किंचित भी सरोकार अब नहीं है पर जैन धर्म उनके लिए सच्चे तत्त्व ज्ञान की कुंजी है एवं अहिंसा, अपरिग्रह, शाकाहार की अवधारणाएँ उनकी चेतना में अब भी समाहित हैं। यह बोध आनुवांशिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता रहा है। वर्तमान धर्म पालना भी इसमें कभी बाधक नहीं बनी। जन्मना या अनुयायी रूप से जैन न होते हुए भी समूचे दक्षिण में, चाहे वे तमिल भाषी हो या कन्नड़ी, मलयालम या तेलगु भाषी, ये जैन धर्माधारित सैद्धांतिक अवधारणाएँ एक श्रृंखला में उन्हें इस तरह जोड़े हुए हैं, मानो वे धर्म-भाई हों। जातिपेक्षा से भी आपस में ऊँचे या नीचे का कोई भेदभाव नहीं। उनमें एक अभूतपूर्व आपसी भाईचारा एवं रोटी-बेटी व्यवहार अब भी प्रचलित है। इन विशुद्ध हृदय जैनों के खाने-पीने के संस्कार भी