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जैन-विभूतियाँ
निशान भी नहीं पिया, एक-एक करके निशान के बराबर दवा चिलमची में गिराती रहीं क्योंकि उनको सन्देह हो गया था कि दवा डॉक्टर के विदेशी दवाखाने से बनकर आई है। लाचारी में उन्हें मेडिकल कॉलेज ले आया गया । पहुँच-पहुँचते रात हो गई। वहाँ नमक का पानी रग काटकर बेहोशी की दशा में चढ़ाया गया। बुखार चढ़ आया। होश नहीं आया। ज्वरताप बगल में 105 और दूसरी बार 106 था । बरफ में भिगोई चादर लपेटी गई। सब उपचार व्यर्थ गये और सूर्योदय से पहले 22 जुलाई, 1918 को प्राणान्त हो गया ।
वकालत शुरु करने के समय अजित प्रसाद जी ने परिग्रह परिमाण का अणुव्रत ले लिया था । उनका लक्ष्य एक लाख रुपये था। उन दिनों सोने का भाव 20 रु. तोला था; आजकल 6,500 रु. तोला है। उस समय का एक लाख आजकल के 2,25,00,000 के बराबर हुआ । अपनी योग्यता के बल पर अजित प्रसाद जी ने यह धन केवल 16 वर्ष की वकालत में कमा लिया। तत्पश्चात् 1918 में उन्होंने सरकारी वकील के पद से त्याग पत्र दे दिया ।
विमाता से अजित प्रसाद जी को दुःख मिला था। उस दुःख से वह अपनी संतान को दूर रखना चाहते थे । अतएव उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। सरकारी वकालत से वह पहले ही त्याग पत्र दे चुके थे। गृहणी के देहान्त पर सब कानूनी पुस्तकें तथा अस्बाब दो दिन तक नीलाम किया गया। हीवेट रोड़ पर स्थित अजिताश्रम और शान्तिनिकेतन दोनों कोठियाँ बेच दी गईं। अजित प्रसाद जी अपने दो छोटे बच्चों को लेकर काशीवास के अभिप्राय से बनारस चले गये। बड़े तीन बच्चे पहले से ही वहाँ छात्रावास में रहते थे। सबसे बड़ी बेटी सरला का 1904 में ही विवाह हो गया था ।
पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने अजित प्रसाद जी को काशी विश्वविद्यालय के धर्म और दर्शन विभाग का मानद निःशुल्क आचार्य नियुक्त कर दिया। पंडित मदनमोहन मालवीय कट्टर सनातन धर्मी थे और अजित प्रसाद जी जैन धर्मावलम्बी। दोनों की पटी नहीं । अजित