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जैन-विभूतियाँ का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा है। इसके बाद 1894 में एल.एल.बी. किया और 1895 में अंग्रेजी में एम.ए. ।
उन दिनों लखनऊ में उच्च न्यायालय नहीं था। ज्युडिशल कमिश्नर न्यायपालिका के समक्ष अजित प्रसाद जी ने 1895 से 1916 तक वकालत की। न्यायपालिका में आसीन न्यायाधीश माननीय रोस स्कोट साहब अजित प्रसाद जी की वकालत से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें 1901 में रायबरेली का मुन्सिफ नियुक्त कर दिया। रायबरेली में केवल तीन महिने मुंसफी करने के बाद अजित प्रसाद जी लखनऊ में सरकारी वकील और लोक अभियोजक नियुक्त कर दिये गये।
अजित प्रसाद जी का विवाह केवल 12 वर्ष की आयु में कर दिया गया। उनकी पत्नी श्रीमती मनोहरी देवी उनसे डेढ़ वर्ष छोटी थीं। इनकी पहली संतान सरला देवी 1890 में हुई जब ये केवल 16 वर्ष के थे और एफ.ए. में पढ़ते थे। इतनी अल्पायु में पिता होने पर इनको इतनी लाज आई कि इन्होंने अपनी पत्नी को मायके भेज दिया और जब तक अपनी शिक्षा समाप्त नहीं कर ली उसे वापस लखनऊ नहीं बुलाया। ग्यारह वर्ष तक अखण्ड ब्रह्मचारी रहे। इनकी दूसरी संतान सुमति का जन्म दिसम्बर 1902 में हुआ। इस प्रकार भाई-बहन में 12 वर्ष का अन्तर था। इसके बाद चार संतान और हुई-तीन पुत्र और एक पुत्री। छ: सन्तानों में से अब केवल दो जीवित हैं।
आपकी सहधर्मिणी मनोहरी देवी बहुत धर्म परायण थीं। आषाढ़ 1918 के अन्तिम सप्ताह में नन्दीश्वर द्वीप पूजा विधान के दिनों में, जिनको अठाइयाँ कहते हैं, उन्होंने दो दिन का निरन्तर उपवास किया। उसको "बेला'' कहते हैं। तीसरे दिन नियमों की कठिनता के कारण उन्होंने सूखे आटे की चपाती, कोयलों पर अधसिकी, खाकर पानी पी लिया। उसके कारण हैजा हो गया। डॉक्टर ने दवा लिख दी। अजित प्रसाद जी ने स्वत: दवा बनाकर उसमें पानी मिलाया और निशान बनाकर पीने को दे दी। फिर "पुरुषार्थसिद्धयुपाय' का अंग्रेजी अनुवाद करने में लग गये। जब रोग का आक्रमण बढ़ता गया और उन्होंने अन्दर जाकर पूछताछ की तो मनोहरी देवी ने स्वीकार किया कि उन्होंने दवा का एक