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जैन-विभूतियाँ विनोद-शिक्षात्मक एवं प्रकीर्णक-इन 5 विभागों में वर्गीकृत 65 निबन्धलेखादि समाहित हैं। निबन्धावली के इस खण्ड के पूर्व 1965 में उनकी कृति 'सन्मति सूत्र और सिद्धसेन' का डॉ. ए.एन. उपाध्ये कृत अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो चुका था। उक्त कृति एवं निबंधावली के द्वितीय खण्ड का प्राक्कथन डॉ. ज्योति प्रसाद जैन ने लिखा था।
भगवान महावीर के परम उपासक और स्वामी समन्तभद्र के अनन्य भक्त जुगलकिशोर ने न केवल 'वीर सेवा मंदिर' और 'समन्तभद्राश्रम' जैसी संस्थाओं की अपने एकाकी बलबूते पर स्थापना की, अपितु अनेक शास्त्र-भण्डारों से खोज-खोजकर कितने ही प्राचीन ग्रन्थों का उनकी जीर्ण-शीर्ण पाण्डुलिपियों से उद्धार किया। उन्होंने उनका संशोधन भी किया तथा उनमें से कई को सुसम्पादित कर अपनी संस्था से प्रकाशित कराया। 'पुरातन जैन-वाक्य सूची', 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह' और "जैन लक्षणावली' जैसे अतीव उपयोगी संदर्भ ग्रंथ उनके 'वीर सेवा मंदिर' की देन हैं।
_ 'युक्तानुशासन', 'देवागम', 'अध्यात्म रहस्य', 'तत्त्वानुशासन', 'समाधितन्त्र' आदि अनेक अलभ्य ग्रंथों के अद्वितीय अनुवाद-भाष्य उन्होंने रचे और कई ग्रन्थों की विद्वत्तापूर्ण विस्तृत प्रस्तावनाएँ लिखीं। मूल लेखक के भावों को हृदयंगम कर उसे सरल भाषा में प्रकट करना सुख्तार साहब के अनुवादों की विशेषता रही। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में भी वे 'हेमचन्द्रीय योगशास्त्र' की एक विरल दिगम्बर टीका, अमितगति के 'योगदासार', प्राभृत के 'स्वोपज्ञ भाष्य' तथा 'कल्याणकल्पद्रुम स्तोत्र' पर मनोयोगपूर्वक कार्य करते रहे।
सरलता-सादगी के पर्याय, सन् 1920 से बराबर खादी पहनने वाले और महात्मा गाँधी की पहली गिरफ्तारी पर यह व्रत लेने वाले कि 'बिना चर्खा काते भोजन नहीं करेंगे' पं. जुगलकिशोर जी में राष्ट्रीय भावना पूर्णत: समायी थी जो उनकी अनेक रचनाओं में भी मुखरित हुई। उन्होंने शहर के कोलाहल से दूर अपनी साहित्य-साधना हेतु जन्मभूमि सरसावा में वीर सेवा मन्दिर बनाया था। वह मंदिर तो नहीं, एक गुरुकुल सरीखा आश्रम था जिसके अधिष्ठाता वह स्वयं थे और उनके सान्निध्य