________________
176
जैन-विभूतियाँ सन् 1920 में उनका एक काव्य संकलन 'वीर पुष्पांजलि' नाम से प्रकाशित हुआ। उस समय वह समाज के घोर विरोध का सामना कर रहे थे। सन् 1928 में उनकी पद्य रचना 'मेरी द्रव्य पूजा' और 1933 में पूज्यपाद देवनन्दी की अमर कृति 'सिद्धि-भक्ति' के पद्यानुवाद स्वरूप 'सिद्धिसोपान' प्रकाशित हुई। तदनन्तर भी उनकी काव्य-साधना हिन्दी
और संस्कृत में चलती रही। उनकी काव्य-कृतियों का एक संकलन 'युग भारती' नाम से प्रकाशित हुआ।
जुगलकिशोर जी की साहित्य साधना का एक अति महत्त्वपूर्ण पक्ष है उनके द्वारा सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार और प्राचीन जैन साहित्य का अन्य सम्प्रदायों के साहित्य के साथ तुलनात्मक गहन अध्ययनमनन, शोध-मंथन कर सत्य को निर्भीकता से उजागर करना। सन् 1913 में उनकी 'जिनपूजाधिकार मीमांसा' प्रकाशित हुई और सन् 1917 में 'ग्रन्थ परीक्षा' के प्रथम एवं द्वितीय भाग, सन् 1921 में भाग तृतीय और जनवरी 1934 में भाग चतुर्थ प्रकाश में आये। 'ग्रन्थपरीक्षा' प्रथम भाग में उन्होंने 'उमास्वामी श्रावकाचार', 'कुन्दकुन्द श्रावकाचार' और 'जिनसेन त्रिवर्णाचार'-इन तीन ग्रन्थों की परीक्षा की। द्वितीय भाग में 'भद्रबाहु संहिता', तृतीय भाग में भट्टारक सोमसेन के 'त्रिवर्णाचार', 'धर्म परीक्षा', 'अकलंक प्रतिष्ठापाठ' और 'पूज्यपाद उपासकाचार' का तथा चतुर्थ भाग में 'सूर्यप्रकाश' ग्रन्थ का परीक्षण किया। उन्होंने अपने गहन तुलनात्मक अध्ययन और तटस्थ परीक्षण द्वारा उन ग्रन्थों में पाई गई विसंगतियों आदि पर प्रकाश डाला। भट्टारक सोमसेन के 'त्रिवर्णाचार' को तो जैन संस्कृति के आचार मार्ग के प्रतिकूल
और 'सूर्यप्रकाश' को अप्रमाणिक ठहरा दिया। उनकी यह ग्रन्थ-परीक्षा परम्परागत संस्कारों पर कड़ा कुशाघात थी। अनेक विद्वान् उससे तिलमिला उठे और उन्हें 'धर्मद्रोही' की उपाधि दे डाली। किन्तु इससे अविचलित रह जुगलकिशोरजी अपने कार्य में लगे रहे। अपने गहन अध्ययन द्वारा उन्होंने 'जैनाचार्यों तथा जैन तीर्थंकरों में शासन भेद' नामक जो लेखमाला प्रकाशित की उसने तो कोहराम मचा दिया। उसके विरुद्ध भी उछलकूद तो बहुत हुई, पर उनकी स्थापनाएँ अटल ही रहीं, कोई उनके